धार्मिक विचार दृटि से ईश्वर, देवी-देवता, देव-दूत (पैगम्बर) आदि के प्रति मन में होने वाले विश्वास तथा श्रद्धा के आधार पर स्थित कर्त्तव्यों, कर्मों और धारणाओं को, जो भिन्न-भिन्न जातियों और देशों में अलग-अलग रूप में प्रचलित हैं और जो कुछ विशिष्ट प्रकार के आचार तथा दर्शन शास्त्र पर आश्रित होते हैं, उन्हें धर्म कहा जाता है। जैसे - हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म , ईसाई धर्म आदि।
हमारा हिन्दू धर्म सनातन धर्म है। इसे ईश्वरीय धर्म भी कहते हैं। इसकी महानता अपरम्पार है। यह सृष्टि का आदि धर्म होने के नाते सनातन धर्म कहलाता है। यह सर्वाधिक उदार और समन्वयशील धर्म है। यह प्रकृति और मनुष्य की एकात्मकता का धर्म हैं। हमारे हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में इसे मानव की आत्मा माना गया है, जिसका सम्बन्ध हृदय से हैं। इसे आध्यात्मिक अवस्थाओं का परीक्षक और निरीक्षक मानते हुए सृष्टि की उत्पत्ति के नियमों का नियन्ता निरूपित किया गया है। धर्म के बारे में संस्कृत में कहा गया है कि-" धारयति इति धर्म:" अर्थात जो धारण करता है, वह धर्म है। इसके साथ ही इसे 'धारणा द्धर्ममित्याहु धर्माद्धार्यते प्रजा: इति धर्म:' धर्म सम्पूर्ण जगत को धारण करता है, इसलिए इसका नाम धर्म है। धर्म ने ही समस्त प्रजा को धारण कर रखा है, क्योंकि यही चराचर प्राणियों सहित त्रिलोक का आधार बताया गया है।
हमारे सनातन की मान्यता है कि ब्रह्माण्ड के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है। जीवात्मा ईश्वर का अंश है, जिसका पुनर्जन्म भी होता है। वेद हमारे ज्ञान के भंडार और अनुभव सिद्ध धर्म के दृष्टा हैं। चार वर्ण, चार आश्रम, चार पुरुषार्थ, सोलह संस्कार और शाश्वत नीति तत्व अहिंसा, सत्य आदि हमारे धर्म के प्राण हैं। यहाँ वामदेव, बुद्धदेव, ज्ञानदेव जैसे असंख्य सत्पुरुष हैं। जहाँ अनेक सामाजिक व वैयक्तिक संस्थाएं, संस्कार और आचार-यज्ञ, आश्रम, गोरक्षा आदि के विचार हैं तो योग विद्या आत्मनिग्रह का वैज्ञानिक उपाय हैं तो जीवन और धर्म की एकता के लिए कर्मयोग भी हैं। इसका साधनापक्ष इतना व्यापक है कि यहाँ आस्तिक हो या नास्तिक, भावुक हो या बौद्धिक, प्रतिक्रियावादी हो या क्रांतदर्शी सभी के लिए कोई-न-कोई मार्ग है। इसलिए यह सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से संसार का सर्वाधिक सम्पन्न धर्म है।
हमारा सनातन धर्म प्रकृति की सतत परिवर्तनशीलता की भांति ही विकासमान धर्म रहा है, तभी तो जड़ता इसके प्रवाह को कभी अवरुद्ध कर विचलित नहीं कर सकी। एक ग्रन्थ प्रत्येक युग और भूमण्डल के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं रह सकता। इसलिए हमारे सनातन धर्म में युगानुरूप स्पष्टीकरण हुए, मान्यताएं मिली, सिद्धांत स्थापित हुए। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, रामचरितमानस इसी तथ्य के प्रमाण हैं।
हमारा सनातन धर्म जीवन जीने की एक कला है, जो ज्ञान को आचरण से जोड़ने की सतत प्रक्रिया है। यह वर्तमान जीवन-मूल्यों के लिए कल्याणकारी और मंगलंमय है। इसकी प्राणवत्ता, अजर-अमरता का रहस्य इसकी उदार प्रकृति और समवन्य प्रवृति है। यह सर्व कलयाणकारी है, मंगलमयी है। यहाँ एक जाति, धर्म या राष्ट्र की मंगल-कामना नहीं, अपितु 'वसुधैव कुटुम्बकम' मानकर चराचर के जीव-जगत की मंगलमय कामना की गई है -
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भागभवेत।। . .