हमारे हिन्दू धर्म को सनातन धर्म के नाम से जाना जाता है। इसे सृष्टि का आदि धर्म भी कहते हैं। इस धर्म के मानने वालों को गुण और कर्म के अनुसार विभिन्न वर्णों में विभक्त कर हमारे समाज के निर्माता ऋषि-मुनियों ने बड़ी सूझ-बूझ का परिचय दिया, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवतगीता में स्पष्ट करते हुए कहा कि, "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः" अर्थात मैंने गुण और कर्म के अनुसार ही चातुर्वर्ण्यं अर्थात जाति व्यवस्था की स्थापना की है। समय के साथ जब यह गुण और कर्म पर आधारित जाति निर्धारण में समस्याएँ उत्पन्न हुई तो उसका समाधान समस्या से अधिक जटिल तथा विषम हुआ तो भारतीय मनीषियों ने इसे जन्म का आधार बना दिया। इसके परिणाम स्वरुप ब्राह्मण की संतान ब्राह्मण, क्षत्रिय की क्षत्रिय, वैश्य की वैश्य और शूद्र की शूद्र कहलाई। इस व्यवस्था से सबकी जीविका का प्रबंध किया गया। ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का राष्ट्र, वैश्य का व्यापार रक्षण-वर्धन और शूद्र का सेवा क्षेत्र निश्चित किया गया।
आज भले ही इस जातिगत व्यवस्था को मानने के लिए कोई बाध्य नहीं हैं, लेकिन आज जिस तरह से राजनीतिज्ञों द्वारा समाज के लोगों को जाति में बाँटकर उन्हें विशिष्ट अधिकार तथा संरक्षण देते हुए विभाजन और विभेद की स्थिति निर्मित की जा रही है, उससे आज घर-घर जातिवाद की जड़ें मजबूत होती जा रही हैं, जिसके परिणाम स्वरुप आज जगह-जगह जातिगत हिंसा देखने को मिलती है। यह हमारे देश के लिए शर्मनाक स्थिति है। संत कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार तलवार को खरीदते समय हम केवल तलवार का ही मोल-भाव करते हैं उसके म्यान के बारे में बात नहीं करते। उसी तरह हमें मनुष्य की जाति नहीं, अपितु उसके ज्ञान के बारे में पूछना चाहिए।
"जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥"