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दीपक श्रीवास्तव नीलपदम

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दस   शीश और आँखें बीस कहे बुराई हो गए तीस,  मारे फुफकारे अहंकार के  छिद्र नासिका सारे बीस, आखों में नफरत का रक्त  मुख मदिरा और मद आसक्त, कर्ण बधिर न सुने सुझाव  भाई भी हो जाए रिपु,  सिर चढ़ता

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अगर आगे कहीं भी जाना है,  तो पहला कदम तो बढाना है।

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खोद-खोद कर खाइयाँ खोद रहें हैं देश, लूट रहे हैं माल सब बदल-बदल कर भेष, बदल-बदल कर भेष चक्र ऐसा वो चलायें, खुदी हुई खाई की चौड़ाई नित और बढ़ायें। जब ऐसी हो सोच आये कैसे समरसता, कैसे होय सुधार

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एक गृहिणी को दे सकें,  वो वेतन है अनमोल,  कैसे  भला  लगाइये,  सेवा, ममता का मोल ।  चालीस बरस की चाकरी,  चूल्हा बच्चों के चांस,  शनै: शनै:  रिसते रहे,   रिश्ते - जीवन - रोमांस ।  पति पथिक ब

तेज है, औ वेग है, है गति, संवेग है, अग्रता है, है त्वरण, स्फुरण, तरँग है, ओज रग-रग भरा, मन में उमँग है, कुलाँच भर रहा हृदय, ऊर्जित हर अंग है, जोश की कमी नहीं, होश का भी संग है, हर तरफ बिखेरत

एक पदक से चूकते,  चढ़ गई सबको भाँग,  सब सोचें कि कैसे लें, इस अवसर को भांज,   राजनीति करते हुए, अपने बर्तन चमकायें,  कैसे इस मौके पर अपनी बढ़त बनायें, अपनी बढ़त बनाते वो लें जब तक बर्तन माँज,  ये सप

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है  दुनिया ऐसे भागती,  समय हो गया तंग, एकाकी जीवन जिया,  छूटा यारों का संग। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

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साथ दिया उसने तभी,  जब-जब लिया पुकार, मन भावों से जान गया, की शब्दों से न गुहार।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"                    

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खींच रहा मन आज फिर, वो बचपन का  चित्र,  आँखें ढूंढें अब तलक, बिछड़ा हुआ वह मित्र ।        (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"                 

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कितना लिया बटोर और,  मन में कूड़ा भर लिया,  समय बहुत ही शेष था, पर पहले ही बूढ़ा हो लिया।    (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"                      

कस्तूरी नाभि बसे, मृग न करे अहसास,  ज्ञान की कस्तूरी गई, बिना किये अभ्यास।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"                    

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पल्लू में उसके बंधे रहते हैं अनगिनत पत्थर, छोटे-बड़े बेडौल पत्थर मार देती है किसी को भी वो ये पत्थर। उस दिन भी उसके पल्लू में बंधे हुए थे ऐसे ही कुछ पत्थर। कोहराम मचा दिया था उस दिन उ

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  दौड़त-दौड़त सब गए,  देन परीक्षा नीट,  लेकिन डर्टी पिक्चर थी,  कुछ भी नहीं था ठीक,  कुछ भी नहीं था ठीक, लीक थी पूरी टंकी,  लगने लगा है कि आयोजन था सब नौटंकी, आयोजन था सब नौटंकी, नौटंकी होती रि

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कहता हूँ हाथ में थमी कलमने जो कहा,  कानों में गुनगुना के जब, पवन ने कुछ कहा,   सितारा टिमटिमाया और इशारा कुछ किया,  ऐसा लगा था श्रृष्टि ने हमारा कुछ किया ।  कागज़ की किश्तियाँ बनाके बैठ ग

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वह शाम ढले घर आता है, सुबह जल्दी उठ जाता है, जाने वो कौन सी रोटी है, वह जाकर शहर कमाता है। बच्चों के उठने से पहले, घर छोड़ के वह चल देता है, बच्चे सोते ही पाता है वह, जब रात को वापस आत

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है चन्द्र छिपा कबसे, बैठा सूरज के पीछे, लम्बी सी अमावस को, पूनम से सजाना है। चमकाना है अपनी, हस्ती को इस हद तक, कि सूरज को भी हमसे, फीका पड़ जाना है। ये आग जो बाकी है, उसका तो नियंत्रण ही, थोड

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तुम्हारा जिक्र ऐसा लगा किसी ने हमको, अंतर्मन में पुकारा है, मत कहना इन अल्फाजों में, आता जिक्र तुम्हारा है। वैसे तो तुम अपने दिल की, सब बातें कहते थे हमसे, अब तो लेकिन बीत गया सब, क्या बातें क्य

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मॉर्निंग वॉक बस यूं ही, कभी सुबह की ठंडी-ठंडी धूप में निकले हों साथ-साथ, नंगे पैरों ही ओस में भीगी दूब पर, ना आंखों में सपनों का भार हो, ना पैरों पर बोझ कोई, बहते रहें कुछ पल यूं ही बहते र

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कामचोर  को  टोंकते,  निकल  जायेगा  दम,  उसका काम करे कोई और, वह बैठे हो बेशर्म।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नीलपदम्"              

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कामचोर की आँख में, होत सुअर का बाल,  देख  अंदेशा काज का,  लेत बहाना ढ़ाल ।  (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नीलपदम्"                    

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