खोद-खोद कर खाइयाँ
खोद रहें हैं देश,
लूट रहे हैं माल सब
बदल-बदल कर भेष,
बदल-बदल कर भेष
चक्र ऐसा वो चलायें,
खुदी हुई खाई की चौड़ाई
नित और बढ़ायें।
जब ऐसी हो सोच आये
कैसे समरसता,
कैसे होय सुधार,
कोई रस्ता न दिखता,
दिखे न कोई रस्ता जिसपे
सब दौड़ लगायें,
वैमनस्यता के कीचड़ में
पहिये धँस न पायें।
पहिये धँस न पायें
चले विकास की गाड़ी,
छोड़े पिछड़ापन औ
देश चल पड़े अगाड़ी।
देश चल पड़े अगाड़ी
होय तरक्की पक्की,
देश प्रथम पायदान खड़ा हो
सकल विश्व की।
देश यदि हो विकसित प्रचुर तरीके
देशवासियों की भी उन्नति
उसी तरीके।
रखो ख़याल सदैव दुखी पिछड़ों का
पर देखो टूटे न धागा देश सूत्र का।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"