एक बार नरेन्द्र अपने गुरु के पास पहुंचकर बोला-‘गुरु जी! मैं अपने जीवन से बहुत दुःखी हूं। मुझे इस दुःख से निकलने का कोई हल सुझाएं।’
गुरु जी ने उससे कहा-‘बेटा! एक काम करो एक गिलास पानी में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पीओ।’
नरेन्द्र ने गुरु जी के कहे अनुसार किया।
तब गुरु जी ने उससे पूछा-‘इसका स्वाद तुम्हें कैसा लगा?’
नरेन्द्र थूकते हुए बोला-‘बहुत ही खराब स्वाद था बिल्कुल खारा।’
गुरु जी बोले-‘एक बार पुनः एक मुट्ठी नमक लेकर मेरे पीछे-पीछे आओ।’
गुरु जी स्वच्छ पानी की झील के पास पहुंचकर बोले-‘अपनी मुट्ठी के नमक को इसमें डाल दो।’
नरेन्द्र ने फिर गुरु जी के कहे अनुसार किया।
तब गुरु जी उससे बोले-‘अब इस झील में से जल लेकर पीओ।’
नरेन्द्र ने वैसा ही किया।
तब गुरु जी ने कहा-‘इसका स्वाद कैसा लगा?’
नेरन्द्र बोला-‘यह तो मीठा है और स्वाद भी अच्छा है।’
तब गुरु जी ने नरेन्द का हाथ पकड़कर अपने पास बिठाते हुए कहा-‘बेटा! जीवन के दुःख नमक सदृश हैं और न उससे कम न अधिक। यह हम पर निर्भर
करता है कि हम कितने दुःख का स्वाद चखते हैं। जब तुम दुःखी हो तो स्वयं को गिलास की तरह नहीं झील की तरह बड़ा बना लो दुःख स्वतः कम हो
जाएगा।’-ज्ञानेश्वर