Hi Friends, एकलव्य, एक सच्चे गुरुभक्त न सिर्फ एक महान धनुर्धर थे वल्कि एक आदर्श पुरुष भी थे. इस धरती पर जब भी गुरु और शिष्य की बात की जाएगी तो एकलव्य का नाम सबसे पहले आएगा. एकलव्य ने अपने गुरु के लिए त्याग करके गुरु की महिमा ईश्वर से भी ऊँचा बना दिया है.
ये बात उन दिनों की है जब गुरु द्रोणाचार्य अपने आश्रम में धनु विद्या की शिक्षा दिया करते थे. वे पांडव को वैदिक शिक्षा तथा युध कुशलता सिखा रहे थे. उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि अर्जुन को दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर बनायेंगे.
एकलव्य को भी धनुर्धर बनने की काफी इच्छा थी. तभी उसने गुरु द्रोणाचार्य के बारे में सुना और वो अपनी विनती लेकर गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में पहुचें. लेकिन एकलव्य एक शुद्र परिवार थे तथा साथ ही गुरु द्रोणाचार्य ने यह प्रतिज्ञा ली थी की अर्जुन को सबसे बड़ा धनुर्धर बनायेंगे. इसलिए गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपना शिष्य बनाने से इंकार कर दिया.
परन्तु एकलव्य भी ऐसे थोड़े ही न मानने बाले थे. वह द्रोणाचार्य को अपने मन में गुरु मान चुके थे. इसलिए एकलव्य दूर जंगल में जाकर गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनायीं तथा उसी मूर्ति को गुरु मानकर धनुष विद्या का अभ्यास करने लगे.
एकलव्य में अपने गुरु के प्रति इतनी प्रेम तथा लगन थी कि वे जब भी मूर्ति के सामने अभ्यास करते थे उन्हें ऐसा लगता था जैसे गुरु द्रोणाचार्य साक्षात् उन्हें धनुष विद्या दे रहे हैं.
एक बार के बात है कि गुरु द्रोणाचार्य पांडवों के साथ कहीं जा रहे थे. अचानक एक कुत्ता जोर जोर से भौंकने लगा. उस कुत्ते की आवाज से सभी लोग परेशान हो रहे थे. अचानक उस कुत्ते की आवाज आनी बंद हो गयी.
जब गुरु द्रोण ने वहां जाकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने देखा की कुत्ते का पूरा मुंह बाण से भरा पड़ा है पर आश्चर्य कि बात ये है की कुत्ते को जरा सा भी चोट नहीं आई है. सिर्फ बाण से कुत्ते का मुंह भर जाने से वो बोलने में असमर्थ था. पास में ही एक आदमी धनुष लिए खड़ा था और वो आदमी कोई और नहीं वल्कि एकलव्य था.
एकलव्य की इतनी अच्छी कुशलता देखकर द्रोणाचार्य चकित रह गए. वास्तव में उनका शिष्य अर्जुन भी इतना माहिर नहीं था. जब गुरु द्रोण ने एकलव्य से उनके गुरु के बारे में पूछा तो एकलव्य ने सारी बाते बताई कि – वे उनकी ही मूर्ति को गुरु मानकर इसका अभ्यास करते हैं.
उस समय में जब कोई शिष्य अपने क्षेत्र में माहिर हो जाता था तो वह गुरु को गुरु दक्षिणा दिया करता था. एकलव्य ने भी ऐसा करने की इच्छा जताई.
चूँकि द्रोणाचार्य अर्जुन को दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे तो उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उसका अंगूठा माँगा. ये वास्तव में चकित करने बाला था.
लेकिन इस महान व्यक्तित्व वाले इन्सान बिना कुछ सोचे समझे अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए अपने दायें हाथ का अंगूठा काट कर दे दिया. यद्यपि वह यह अच्छी तरह से जानता था कि बिना अंगूठे के वो अब कभी भी धनुष नहीं चला पायेगा.
क्योंकि उसकी नजर में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर था इसलिए बिना सोचे समझे उसने अंगूठा दे दिया.
हमें गर्व है इस भारत भूमि पर कि इसने एकलव्य जैसा सच्चा शिष्य को जन्म दिया. एकलव्य के इस बलिदान को आने बाली पीढियां भी याद करेगी.
वास्तव में ‘एकलव्य’ एक सच्चा ‘गुरुभक्त’ था. 🙂
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धन्यवाद !