आज तो दिल्ली का मौसम बहुत ही गर्म है। एकदम से तेज धूप है, सर्दियां लगभग चली ही गई हैं।
लेकिन यूक्रेन में तो सर्द-गर्मी है। यहां पर नीचे -5 डिग्री टेंपरेचर और ऊपर आसमान में 500 डिग्री टेंपरेचर है। इस 500 डिग्री और -5 डिग्री के बीच में फंसे हैं कुछ भारतीय छात्र, कुछ विदेशी छात्र और यूक्रेन की जनता, जिसको ना तो किसी नेटो से मतलब है ना अमेरिका रूस से कोई मतलब हैं। लेकिन इन दो तापमानों के बीच वह सैंडविच बने हुए हैं, लेकिन क्या किया जा सकता है!!
कोई भी पक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं है। दोनों पक्षों को लगता है कि वह सही है। यूक्रेन को समझना होगा कि उसकी इतनी बर्बादी होने के बावजूद उसकी हेल्प के लिए ना तो अमेरिका आया नाम कोई नैटो देश आया। केवल पैसे दे देने से और हथियार सप्लाई कर देने से ही युद्ध नहीं लड़े जाते। उन हथियारों को इस्तेमाल करने की तकनीकी जानकारी होना, उनको पकड़ने के लिए दो हाथ होना बहुत आवश्यक है। जब वहां पर कुछ बचेगा ही नहीं तो उन हथियारों का इस्तेमाल कैसे होगा! अब तक यूक्रेन को भी समझ आ गया होगा कि नेटो में शामिल होने की उसकी जो ज़िद थी वह कितनी बेमानी थी।
लेकिन गलती कभी भी एक पक्ष की नहीं होती। दूसरे पक्ष रूस को भी समझना होगा कि उसने अपना एक समीपवर्ती पड़ोसी देश, जो उससे ही अलग हुआ था, को नेस्तनाबूद करके कोई भी खुशी हासिल नहीं की है। बल्कि पूरी दुनिया में वह अलग-थलग पड़ गया है । उसके भी हजारों सैनिक मारे गए हैं और प्रॉपर्टी का तो बेहिसाब नुकसान हुआ है। जितनी प्रॉपर्टी उसने यूक्रेन की नष्ट की है शायद उससे ज्यादा आर्थिक नुकसान उसका खुदका हुआ है। क्योंकि जो टैंकर, मिसाइल, हेलीकॉप्टर, सैनिक और अन्य असला उसने इस्तेमाल किया है वह बहुत बेशकीमती था। साथ ही इतने वर्षों की जो उसकी छवि थी वह भी खराब हुई है।
देखते हैं इसका परिणाम क्या रहता है!!! लेकिन मुझे तो उन बच्चों के लिए दुख आता है जो 18 से 21 साल के हैं, जिन्होंने अभी तक कुछ नहीं देखा लेकिन तीसरे विश्वयुद्ध का आगाज देख लिया।
साहित्य के वृहत सागर में एक ओस की बूंद, जिसके सपने बहुत बड़े हैं और पंख छोटे। छोटे पंखों के साथ अपना आसमान खोज रही हूँ।
प्रकाशित पुस्तकें:
- अभिव्यक्ति या अंतर्द्वंद
- 'राम वही जो सिया मन भाये' D