भक्ति में हिसाब किताब कैसा ?
एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था।
जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता... तो संख्या को खड़िया से दीवार पर लिखता।
किसी दिन वह लाख की संख्या छू लेता.. किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता।
उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते.. और मुस्कराते।
एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये.. तो लौटते में एक बरगद की छांव बैठे।
उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी। जो आता.. उसे बर्तन में नापकर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे।
तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया।
दूधवाली मुस्कराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया.. पैसे भी नहीं लिये।
गुरु मुस्करा दिये, शिष्य हतप्रभ.. उन दोनों के जाने के बाद.. वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पड़े।
चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की.. तो गुरु ने उत्तर दिया - प्रेम वत्स, प्रेम ! यह प्रेम है.. और प्रेम में हिसाब कैसा ?
उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है.. जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा ? और गुरु वैसे ही मुस्कराये, व्यंग्य से।
समझ गया गुरुवर.. मैं समझ गया, प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को..!!