दबी जुबां में सही अपनी बात कहो,सहते तो सब हैं......इसमें क्या नई बात भला!जो दिन निकला है...हमेशा है ढला!बड़ा बोझ सीने के पास रखते हो,शहर के पेड़ से उदास लगते हो...पलों को उड़ने दो उन्हें न रखना तोलकर,लौट आयें जो परिंदों को यूँ ही रखना खोलक
कविता जो दिल को छू जाये पंछी क्या सोचे वो क्या जाने, पंछी बन जो उड़ना ना जाने. नहीं कल को सोच पछताना, क्या होगा सोच ना घबराना. सोने का पिंजरा पसंद नहीं, पेड़ों पर जाकर सो जाना. दाना-पानी का व्यापार नहीं, सोने-चांदी की भी चाह नहीं. जो है सब तेरा - मेरा है,
"एक एक पल एक एक साल सा होता है, इंतज़ार तो कमबख़्त कमाल सा होता है. मुश्किल होता है वक्त मगर बेहद सशक्त, अच्छे अच्छों को भी एहसास सा होता है. तनहा रहना सब के लिए आसान नहीं है, फेल होते हुए भी दीदार पास सा होता है. इतना जल्दी सब कुछ मन सोचे हर कुछ, आदतन मन का अजीब हाल
" तेरे जाने से,अब ये शहर वीरान हो गया, तेेेेरे जादू का असर अब जाने कहा खो गया तेरी पायल की झंकार से, ये सारा शहर जाग जाता था, अब उन झंकारो का खतम नामों-निशान हो गया, बहुत ढूँढ़ा मैनें तुझे मुशाफिरों की तरह, भटकता रहा,छिपता रहा,कायरो की तरह, अब तक तो ये शहर भी पूरा सुनसान हो गया,