हम देख रहे हैं........होने तक,
इस बिंदु से अंतिम कोने तक।।
हम देख रहे हैं भाई की.........
भाई से बगावत होने तक,
ग़म पर हंसते चश्मों के तले
आँसू की लगावट होने तक।
हम देख रहे हैं उसको भी...
परदे से उतर कर आने तक,
हमदर्द को झूठे वादों से घर
अपने मुकर कर जाने तक।।
हम देख रहे हैं होने तक......
हम देख रहे हैं हर घर की
अज़मत के किराए जाने तक,
रहवर-बन्दर के हाथों से.......
ये ताज़ गिराए जाने तक।
हम देख रहे हैं इस डर की.....
दीवार के पूरा गिरने तक,
इंसाफ की देवी के कर के...
मीज़ान के पूरा फिरने तक।।
हम देख रहे हैं होने तक.......
हम देख रहे हैं यूँ भी कहीं.....
इंसान अभी तक जिन्दा हैं,
नफ़रत से सुलगते मौसम में
नाकाम......मगर शर्मिंदा हैं।
हम देख रहे यूँ भी कहीं..........
उम्मीद ज़रा सी वाकी है,
धर्मों की बस्ती में खोयी..........
मानवता की बैसाखी है।।
हम देख रहे हैं होने तक..........
हम देख रहे यूँ भी कि.........
सहने की हद क्या होती है,
कस्तूरी के मद में खोई.......
ये जनता कब तक सोती है।
हम देख रहे हैं आगत में...
जनतंत्र की हालत क्या होगी?
उनके विधान की छाया में
इसतंत्र की हालत क्या होगी?
हम देख रहे हैं होने तक.........
**कविता का प्रथम भाग**
# आतिश बदायूँनी।