यूं ही अंध-भक्त कब बनते,
इन्हें बनाया........जाता है।
नफ़रत का सप्तामृत लाकर,
इन्हें खिलाया.......जाता है।। यूं ही..
आका की.....भक्ति में डूबे,
फिर ये.....अंधे हो जाते हैं;
सच के......आईने के आगे,
असली नंगे......हो जाते हैं;
कठ-पुतली सम उंगली पर,
फिर इन्हें..नचाया जाता है।। यूं ही..
मानवता के..मर्म विनाशक,
जग को धर्म.....सिखाते हैं;
कर्म हीन निर्लज्ज नपुंसक,
जग को कर्म.....सिखाते हैं;
ऐसे कर्महीन.......मुर्गों सर,
ताज सजाया.......जाता है।। यूं ही..
अपने आकाओंको अक्सर,
फिर ये.......खुदा बताते हैं;
भोली भाली..जनता को ये,
जी भर खूब.......सताते हैं;
ऐसे दुष्ट-भ्रष्ट......दल्लों को,
हार पिनहाया.......जाता है।। यूं ही..
इन अंधे बहरों...का सच में,
कोई धर्म........नहीं होता है;
आका की पूजा...से बढ़कर,
कोई कर्म........नहीं होता है;
निर्धारित ट्यूनअप रिमोट से,
इन्हें बजाया..........जाता है।। यूं ही..
ये विष-धर बन मां को काटें,
शैतां मरे........अगर ये चाटें;
ये दुनियांको.....नफ़रत बांटें,
जो मुंह खोले...उसको डांटें;
ऐसे हला-हली......सर्पों को,
दूध पिलाया..........जाता है।। यूं ही..
@ नवाब आतिश।