क्या कभी महसूस किया है तुमने?
फर्ज के पल्लवित होते खेत की
ओट में, कर्ज के दलदल से उठती
असहनीय दुर्गंध को? क्या कभी....?
साहूकार के नमस्कार में छिपा तकाज़ा,
या फिर, उसकी आंखों से रिसता
तिरस्कार, जो चिंता की चिता में
मृत्यु पूर्व जलने का असहनीय
अहसास ही नहीं कराता, बल्कि
निम्नता का आत्मबोध बनकर अन्तर
को छलनी कर जाता है? क्या कभी...?
आत्मदाह के बाद की पीड़ा को,
जो दोस्त से मदद की गुहार पर,
उसके द्वारा संगिनी की उपस्थिति की
दरकार के सापेक्ष प्राप्त, भौतिक
मृत्यु से जनित होती है, क्या कभी....?
स्वप्नविष के मद में बुदबुदाते, उस
युवा ह्रदय को हर पल, मृत्यु के पथ
पर आगे ले जाती, सहवर्ती टीस को,
जो सर्वथः स्फूटित होती है, अपने ही
जैसों के अनगिनत स्वप्नशवों पर सवार,
कैश को ऐश पर पानी सरीखे बहाते,
पूर्वजों की मिल्कियत अथवा कलयुगी
सत्कर्मों से प्राप्त संपदा पर इतराए,
अकर्मण्य से सहवर्ती की अनचाही सीख
से 'भाई खर्च कम करो' क्या कभी....?
उस सदैव कर्मरत रहने वाले वर्तमान
के, लगभग अचेत हो चले मस्तिष्क में
उठते सन्नाटे को, जो उसे तय नहीं करने
देता कि कैसे रोके...क्या कम करे?
बेटे को पढ़ने से, बेटी को बढ़ने से,
साहूकार से लिए रुपए से कई गुना
देने के बाबजूद, दोगुने बकाए को,
स्वम की ढलती उम्र को, तिरस्कार से
उठती नजरों को, दैनिक तानो को,
खुद ही की नजरों में गिरते खुद के
मूल्य को, कैसे? क्या कम करे.......?
वो कैसे और किसको बताए?....कर्ज़
उसका शौक नहीं है, उसकी महत्वाकांक्षा
और मजबूरी का प्रतिफल है, ऐसा जल
विहीन मीन का मृत्यु वरण, क्या कभी....?
@ नवाब आतिश। 03/11