निंदा की लीद
प्राचीन समय की बात है। काशीनरेश ने एक बार रात्रि में स्वप्न देखा।
स्वप्न में देवदूत ने उनसे कहाः “नरेश ! तुम बड़े पुण्यात्मा हो। तुम्हारे लिए स्वर्ग में एक आवास बना है और जब चाहो तब तुम उसमें आराम कर सकते हो।”
यह देखकर राजा को अपने पुण्यात्मा होने का गर्व हुआ। गर्व मनुष्य की योग्यता को मार डालता है। राजा को हुआ कि जब स्वर्ग में मेरे लिए आवास की तैयारी है तो अब मुझे क्या चिन्ता?
अज्ञानी जीव को जब संसार की तुच्छ चीजें भी मिल जाती हैं तो वह निरंकुश हो जाता है।
एक बार काशीनरेश जंगल में गया तो खुशनसीबी से वहाँ उसे एक महात्मा का झोंपड़ा दिखा। उसने सोचाः ‘चलो, जरा सुन लें महात्मा के दो वचन।’
महात्मा के पास जाकर उसने पुकारा किन्तु महात्मा तो बैठे थे निर्विकल्प समाधी में। वे क्या जवाब देते?
राजा को हुआ किः ‘मैं काशी नरेश ! इतना धर्मात्मा ! ये मेरे राज्य में रहते हैं फिर भी मेरी आवाज तक नहीं सुनते ! इनको कुछ सबक सिखाना चाहिए।
सत्ता और अहंकार आदमी को अंधा बना देते हैं। राजा ने घोड़े की लीद उठाकर बाबा के सिर पर रख दी। संत तो समाधिस्थ थे किन्तु प्रकृति से यह न सहा गया।
थोड़े दिन बाद पुनः वही देवदूत राजा के सपने में दिखा और कहाः “राजन ! स्वर्ग में तुम्हारे लिए जो आवास बना था, वह तो है किन्तु पूरा लीद से भर गया है।
उसमें एक मक्खी तक के लिए जगह नहीं है तो तुम उसमें कैसे घुस सकोगे?”
राजा समझ गया किः ‘अरे ! संत का जो अपमान किया था, उसी का यह परिणाम है।’
.
जिनके चित्त में इच्छा और द्वेष नहीं है उनको आप जैसी चीज देते हो वह अनंतगुनी हो जाती है।
आप अगर आदर देते हो तो आपका आदर अनंतगुना हो जाता है। अगर आप उनसे प्रीति करते हो तो आपके हृदय की प्रीति अनंतगुनी हो जाती है।
आप उनमें दोष देखते हो या उनसे द्वेष करते हो तो आपके अंदर अनेक दोष आ जाते हैं।
जैसे, खेत में आप जो बोते हो वही उगता है। हो सकता है कि खेत में कोई बीज न भी उगे, किन्तु ब्रह्मवेत्ता के खेत में तो सब उग जाता है। तभी नानक देव जी ने कहा हैः
करनी आपो आपणी, के नेड़े के दूर।
अपनी करनी से ही आप अपने भगवान के, महापुरुषों के करीब महसूस करते हो और अपनी ही करनी से आप अपने को उनसे दूर महसूस करते हो।
कभी हम अपने को ईश्वर के नजदीक महसूस करते हैं और कभी दूर महसूस करते हैं क्योंकि हम जब इच्छा और द्वेष के चंगुल में आ जाते हैं तो ईश्वर से दूरी महसूस करते हैं और सात्त्विक भाव में आते हैं तो ईश्वर के नजदीक महसूस करते हैं।
किन्तु यदि इच्छा और द्वेष से रहित हो गये तो फिर ईश्वर और हम दो नहीं बचते बल्कि ‘हम न तुम, दफ्तर गुम…’ ऐसी स्थिति आ जाती है।
उस काशी नरेश ने देवदूत की बात समझ ली कि मैंने महापुरुष का अपमान किया इसलिए स्वर्ग में मेरा जो आवास था, वह लीद से भर गया है।
सुबह उठकर उसने वजीरों से बात कीः “कैसे भी करके वह लीद का भण्डार खाली हो जाये ऐसी युक्ति बताओ।”
चतुर वजीरों ने कहाः “राजन ! एक ही उपाय है। आप ऐसा कुछ प्रचार करवाओ ताकि लोग आपकी निंदा करने लग जायें।
लोग जितनी निंदा करेंगे उतनी लीद उनके भाग्य में चली जायेगी। आपका निवास साफ हो जायेगा।”
राजा ने न किये हों ऐसे दुराचरणों का, दुर्व्यवहारों का कुप्रचार राज्य में करवाया और लोग राजा की निंदा करने लगे।
कुछ ही दिनों के बाद देवदूत ने स्वप्न में आकर कहाः “राजन ! तुम्हारा वह करीब-करीब खाली हो गया है। अब एक कोने में थोड़ी सी लीद बच गयी है। वह लीद तुमको ही खानी पड़ेगी।”
राजा ने देवदूत से प्रार्थना कीः “उसको खत्म करने का उपाय बता दीजिए।”
देवदूतः “नगर के और लोग तो तुम्हारे दुराचरणों का प्रचार सुनकर निंदा करने लग गये हैं..
लेकिन एक लुहार ने तुम्हारी अभी तक निंदा नहीं की क्योंकि वह लुहार सोचता है कि जब ‘जब ईश्वर ने सृष्टि बनाई तो मैं क्यों किसी की निंदा सुनकर द्वेष करूँ और किसी की प्रशंसा सुनकर इच्छा करूँ?
मैं इच्छा-द्वेष नहीं करता। मैं तो मस्त हूँ अपने आप में’ वह है तो लुहार लेकिन है मस्त… इच्छा-द्वेष से बचा हुआ है।
वह लुहार अगर तुम्हारी थोड़ी-सी निंदा कर ले तो तुम्हारे महल की एकदम सफाई हो जायेगी।”
यह सुनकर राजा वेश बदल कर लुहार के पास आया और राजा की निंदा करने लगा।
तब लुहार ने कहाः “आप भले राजा की निंदा करो लेकिन मैं आपके चक्कर में आने वाला नहीं हूँ। अब बाकी की बची जो लीद है, वह आपको ही खानी पड़ेगी। मुझे मत खिलाओ।”
तब राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछाः “तुम कैसे जान गये?”
लुहारः “परमात्मा सर्वव्यापक है। वह मेरे हृदय में भी है।
ये देवदूत या देवता क्या होते हैं? सबको सत्ता देने वाला अनंत ब्रह्माण्डनायक मेरा आत्मा है। वेश बदलने पर भी आपको मैं जान गया और देवदूत आपको सपना देता है यह भी जान गया। वह लीद आपको ही खानी पड़ेगी।”
जब इच्छा और द्वेष होता है तभी सब उलटा दिखता है। जिसके जीवन में इच्छा-द्वेष नहीं होते उसे सब साफ-साफ दिखता है।
जैसे, दर्पण के सामने जो भी रख दो वह साफ-साफ दिखता है वैसे ही इच्छा-द्वेषरहित महापुरुषों का हृदय होता है।
श्रीकृष्ण के ये दो ही वचन अगर जीवन में उतर जायें तो काफी हैं।
.
अज्ञानता को कैसे दूर किया जा सकता है? श्रेष्ठ कर्मों के आचरण से अपने पापों को नष्ट करके मनुष्य द्वन्द्व रूप मोह को दूर कर सकता है एवं प्रभु का भजन दृढ़ता पूर्वक कर सकता है।