निर्लज्ज मन का इलाज
कुछ मित्र नर्मदा किनारे पिकनिक मना रहे थे। उन्होंने देखा कि सामने पेड़ के नीचे के एक व्यक्ति कंडों की आँच पर रोटियाँ सेंक रहा था। उसने कुल तीन रोटियाँ बनाई। फिर कुछ देर बाद उस व्यक्ति ने रोटियाँ तोड़ तोड़ कर नर्मदा को अर्पित कर दी, और दो मुट्ठी राख पानी में धोली और पी गया। फिर अपनी झोली उठाई और आगे बढ़ चला।
मित्र मंडली को यह सब देखकर बड़ा अजीब लगा और उन्होंने ने उस व्यक्ति को रोक कर पूछा–'बाबा आपने यह क्या किया ? रोटियाँ बनानी थी तो खाई क्यों नहीं ? खाना नहीं थी तो बनाई क्यों ? बात अटपटी लगती है। समझाकर जाइये।'
उस व्यक्ति ने अपनी मनोवेदना शब्दों में बाँध दी और बोला–'भैया, नर्मदा माई की परिक्रमा पर निकला हूँ। भिक्षाटन से पेट भरने का संकल्प है। पर्याप्त मिल जाता है। यात्रा भी समाप्ति पर ही है। मगर यह मन तीन दिनों से रोटी की रट लगाए था। चना चबैना से इसे तृप्ति नहीं, इसे रोटी चाहिये। उसी का स्मरण, उसी का कीर्तन। कल तो माई के दर्शन में भी मुदित नहीं हुआ। कीर्तन में भी भटकता ही रहा। बस रोटी चाहिये थी इसे तो।
आज पहली बार मुँह खोलकर कहीं से आटा माँगा, कहीं से नमक की याचना की, कंडे बटोरे और पत्थर पर गूंध कर रोटियाँ सेंकी, फिर खाने से पहले पानी लेने गया। दोपहर की धूप में नर्मदा माई की चमकती लहरों ने आँखों को भरमा लिया। बड़ी ठंडक मिल रही थी। मगर यह मरभुखा मन रोटियौ में ही रखा था। कहीं कौवा न ले जाए। कोई कुत्ता न आ जाए। एक बार तो इस पापी ने यह भी शंका कर ली कि कहीं आप लोग ही न उठा लें इस छप्पन भोग को।
परिक्रमा में जो माई का दर्शन भी न करने दे वह मीत नहीं, वह तो मेरा बैरी हुआ। बस फिर सोच लिया, आज इस बैरी को मजा चखाना ही चाहिये। रोटियो को खिला दिया मछलियों को और इसे पिला दी उन्ही कंडों की राख। अब कल एकादशी है, निर्जला रहूँगा। ऐसे ही मानेगा यह निर्लज्ज मन। यही है इसका इलाज।