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इस्लामोफोबिया

22 नवम्बर 2021

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मुदित खामोशी से उसे देख रहा था ड्राइव करते... एक हाथ स्टेयरिंग पे और दूसरे से फोन संभाले शायद बच्चे से बात कर रहा था और कार सन्नाटे और अंधेरे रास्ते पर तेजी से दौड़ रही थी।

फिर उसने फोन कट करके डैशबोर्ड पे डाला और मुदित को देख के मुस्करा दिया। मुदित कंपनी के काम के सिलसिले में कैब बुक करके यहां गाँव आया था, जहां एक प्रोजेक्ट पे काम चल रहा था... और अब वापसी हो रही थी।

"बेटी है मेरी, चार साल की।" उसने मुस्कराते हुए बताया, "हर बच्चा अपने पापा में हीरो देखना चाहता है। मेरी बेटी भी... और हमेशा शिकायत करती है कि मैं हीरो क्यों नहीं। टीवी का असर है... बच्चे जल्दी बातों को समझने लगते हैं।"

"यार हो तो स्मार्ट... और कैसा हीरो चाहिये बेटी को?" मुदित ने हंसते हुए कहा।

"दिखने वाला नहीं... जो बहादुरी का कोई काम करे, जो किसी की जान बचाये, जो कुछ ऐसा करे कि दुनिया इज्जत से नाम ले उसका। अब गरीब आदमी हूं साहब, रोजी कमाने से फुर्सत नहीं मिलती, कारनामा क्या खाक करूँगा।"

मुदित धीरे से हंस पड़ा और फिर दोनों के बीच खामोशी छा गयी। तभी रास्ते में एक दरगाह पड़ी, जहां शायद कोई उर्स चल रहा था... उसने पूरी श्रद्धा से सर नवाया था।

"यार कमाल हो... अभी पीछे मंदिर के आगे भी सर झुकाये थे और अब इनके आगे भी!" मुदित बोले बगैर न रह सका।

"तो क्या हुआ... हम तो सबके हैं , सब हमारे हैं।"

"छोड़ो यार, बड़े गंदे लोग होते हैं यह मुहमडन। दूर रहने में ही भलाई।" मुदित ने एसे मुंह बनाया था, जैसे कुछ कड़वा सा जायका घुल गया हो मुंह में।

"नहीं तो... एसा क्यों लगता है आपको?"

"और नहीं तो क्या यार... पूरी दुनिया को नर्क बनाये हुए हैं। खुद तो दूसरे धर्म की कोई इज्जत करते नहीं। सबको काफिर बतायेंगे, सबकी चीजों को हराम बतायेंगे और चाहेंगे कि दूसरे इनकी इज्जत करें।"

"अच्छे बुरे लोग तो हर धर्म, हर समाज में होते हैं, किसी कौम या समाज का अच्छे बुरे होने पे एकाधिकार थोड़े है।"

"पर यह साले बुरे ही है, स्लम बस्तियों में गंदगी फैलाये, नाली के कीड़ों की तरह बजबजाते हैं। न शिक्षा की अहमियत समझें न बढ़ती आबादी की फिक्र करें। बस ढेर से बच्चे पैदा करो और किसी को सिलाई, कढ़ाई पे लगा दो, किसी को गाड़ी, घोड़े का काम सिखा दो, कोई रिक्शा, टैक्सी चला लेगा, कोई पंचर बना लेगा और कोई चोरी चकारी। बोझ बने हैं देश पे साले।"

"हाँ यह तो है... पर इसकी जिम्मेदारी सरकारों पे भी है, जिसने इन्हें वोट बैंक बना के रखा लेकिन इनके कल्याण के लिये कोई जमीनी योजनायें न चलायीं।"

"चलाती भी तो कुछ न होना था। इन्हें स्कूल से ज्यादा मस्जिद-मदरसों की जरूरत है। इन्हें शिक्षकों से ज्यादा मौलवी मुफ्ती की जरूरत है। सरकार परिवार नियोजन चलायेगी तो कोई मौलाना उसे हराम करार दे देगा। सरकार मदरसों को आधुनिक करना चाहेगी तो यह उसे दीनी तालीम में छेड़छाड़ मान के विरोध में उतर आयेंगे।"

"शायद जागरूकता की कमी है, फिर कई बार सरकार फैसले थोपती है। मुसलमानों में भी प्रगतिशील सोच के लोग हैं, उनकी सहायता से अगर सुधार के प्रोग्राम चलायें तो अपने समाज के लोगों की वह सुन भी लेंगे।"

"अमा किसी की न सुनेंगे साले जंगली। उल्टे उन लोगों को ही काफिर, संघी, मोसाद का एजेंट बता देंगे जाहिल। तुम नहीं देखते इनका जंगलीपन? इनके जलसे सुन लो, इनकी तकरीरें सुन लो। इस्लाम से पहले दुनिया अंधेरे में थी और अब भी जो गैरमुस्लिम हैं सब अंधेरे में है। बस यही अफजल हैं बाकी सब हकीर। इनके लिये जन्नत है, हूरे हैं और बाकियों के लिये दोजख रजिस्टर्ड है। बस अपनी बड़ाई, अपने कारनामे, हम यह हैं, हम वह हैं... साले जाहिल।"

मुदित के आक्रोश को देखते हुए वह चुप रह गया था।

"साले एक सुई भी न बना पाये, एक-एक सामान, गाड़ियाँ, गैजेट्स, मेडिकल इक्विपमेंट्स, मेडिसिन, मशीनरी... ए टु जेड, हर चीज दूसरों की बनाई इस्तेमाल करते हैं लेकिन जिन्होंने बनाई है, दिन रात उन्हीं ईसाइयों, यहूदियों को कोसना, उनकी बर्बादी की दुआये मांगना। साले हमारे बीच रहते हैं, हर संसाधन हमारे ही इस्तेमाल करते हैं और फिर भी हम उनकी नजर में दोयम दर्जे के हैं। काफिर हैं। घिन नहीं आती तुम्हें इनसे... नफरत नहीं होती इनसे?"

"गरीब आदमी हूं साहब, नफरत करके कहां जी पाऊंगा। हमारे तो कभी रहीम भी काम आ जाते हैं तो कभी राम भी।"

पर यह जवाब मुदित को न संतुष्ट कर पाया और न एकाएक उसके उभर आये आक्रोश को दबा पाया। सच भी था, मुदित ने जितना भी मुसलमानों को जाना था... उसे बेपनाह नफरत ही हुई थी। वह बोलता गया और बेचारा ड्राइवर खामोशी से उसे सुनता रहा।

मुदित की लय तब टूटी, जब एक बड़ा सा पत्थर गाड़ी के शीशे से टकराया। दोनों बुरी तरह चौंके... तभी गाड़ी पर दोनों दिशा से लगातार पत्थर बरसने लगे और हड़बड़ाये से दोनों नीचे झुक गये।

गाड़ी से नियंत्रण हटा तो वह कच्ची सड़क से उतर गयी, और यह उनकी बदकिस्मती थी कि उस साईड पानी भरा था और शायद गड्ढे भी थे जो गाड़ी संभालने की कोशिश में और अनियंत्रित होकर पेड़ में जा घुसी।

ड्राइवर ने शायद कुछ सायों को उस ओर बढ़ते देख लिया था... लेकिन उसकी साइड का दरवाजा पेड़ के कारण खुल नहीं सकता था।

"साहब आप उतर कर तेजी से भाग लो... थोड़ा आगे चौराहे पे आपको मदद मिल जायेगी। निकलो जल्दी।" उसने हड़बड़ाये स्वर में कहा था।

"और तुम?" मुदित ने अपनी साईड का दरवाजा खोलते हुए बदहवास अंदाज में कहा।

"मैं बस ड्राइवर भर हूँ... आप निकलो।" वह तेज स्वर में बोला।

मुदित को उसकी परवाह न रही और वह पूरी ताकत से अंधेरी सड़क पे भाग खड़ा हुआ। कुछ पत्थरों ने उसका पीछा किया, फिर एक फायर भी हुआ... और उसकी धड़कनें रुकते-रुकते बचीं।

पर शरीर में कोई चुभन न महसूस हुई तो भागता रहा। यह भी महसूस किया कि पीछे कोई दौड़ा था, पर देखने की कोशिश न की और भागता रहा। चौराहा ज्यादा दूर नहीं था और वहां मौजूद होटल पे लोग भी थे जो फायर की आवाज पर चौंचियाए हुए थे।

वह वहीं गिर कर हांफने लगा। सीने की धड़कनें और सांसे नियंत्रित हुईं तो उसने सारी बात बताई। उसे ड्राइवर की फिक्र थी।

होटल वाले ने पास की बस्ती में किसी को फोन किया... और करीब आधे घंटे में वहां बीस पच्चीस लोग मय टाॅर्च और लाठी इकट्ठे हो गये। उनके पास दो बंदूकें भी थीं।

फिर सब थोड़ा शोर करते, आवाजें लगाते उधर बढ़ने लगे।

दस मिनट में वह उस जगह पंहुच पाये, लेकिन वहां कोई नहीं था। हालात हादसे की गवाही तो दे रहे थे, पर कार गायब थी और ड्राइवर थोड़ी दूर पड़ा आखिरी सांसें गिन रहा था। उसे शायद चाकू मारे गये थे... उसके आसपास काफी खून दिख रहा था।

"अरे कोई एंबुलेंस को फोन करो... पुलिस को फोन करो।" चीखते हुए मुदित ने उसे हिलाया, आवाजें दीं, झंझोड़ा तो बमुश्किल उसने आंख खोली। मुदित को उसने पहचान लिया।

"आपके निकल जाने का गुस्सा उन्होंने मुझ पर निकाल लिया..." वह धीरे-धीरे कमजोर सी आवाज में बोला, "मैं अब... बच नहीं पाऊंगा साहब... एक काम कर दोगे साहब।"

"ह-हाँ हाँ... बोलो।"

"मेरी बेटी को बता देना... उसके पापा भी हीरो थे..." आगे उसकी आवाज रूंध कर गले में ही घुट गयी।

"हाँ जरूर बताऊंगा दोस्त... तुम अपना नंबर बताओ।"

उसने उखड़ती सांसों से अपना नंबर बताया।

"नाम... नाम क्या है तुम्हारा?" मुदित ने फोन पर नंबर पुश करते हुए कहा।

"अ-अब्दुल... अब्दुल रहमान।"

 
 

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