तिवारी जी साइकिल संभाले गली से निकले ही थे कि सत्तू सामने आ गया।
"आम-आम तिवाई चाचा।" कहने के बाद दांत निकाल देना सत्तू की आदत थी।
"राम-राम सत्तू।" तिवारी जी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
सत्तू उनके पड़ोसी दयाशंकर का बेटा था, जिसका नाम तो सत्येन्द्र था पर सभी उसे सत्तू बुलाते थे। शरीर से सत्रह-अट्ठरह साल का हो गया था, मगर बुद्धि विकास न हो पाने के कारण बच्चे सी थी। 'र' का उच्चारण नहीं कर पाता था और थोड़ा हकलाता भी था। खुश हमेशा दिखता था और ज्यादातर वक्त हंसता ही रहता था। शायद समझदार नहीं था तो दुनिया की गंदगी से बरी था... भोला भाला मासूम।
"सत्तू यह आज कुर्ता कैसे पहन लिया?" तिवारी ने उसके कुर्ते को देख कर सहज स्वर में पूछा।
"हमद चाचा ने दिया... मेई बुश्शर्ट फट गयी थी न। तो चाचा ने दिया।" उसने खुश हो कर बताया।
तिवारी जी को थोड़ा खराब सा लगा... सत्तू का मतलब अहमद चाचा से था जो उन्हीं की गली में रहते थे। सत्तू के पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी उसपे बेटा एसा... ध्यान देते भी तो कैसे। अहमद भाई सत्तू का पड़ोसियों के लिहाज से शायद सबसे ज्यादा ख्याल रखते थे, पर उन्हें यह खराब लगा कि इस बात की तरफ खुद उनका ध्यान क्यों नहीं गया।
"औउ-औउ... हमने चाचा की टोपी भी ले ली।" उसने खुशी से लहराते हुए जेब में ठुंसी टोपी निकाली और सर पे लगा ली, "तिवाई चाचा... लग अहा हूँ न, हमद चाचा की तअह।"
"हाँ-हाँ सत्तू लग रहा है एकदम अहमद की तरह। सुन तेरी बुश्शर्ट फट गयी थी न, आज बाजार आना दुकान पे... तुझे नयी रेडीमेड पैंट बुश्शर्ट दिलाता हूँ।"
"सच्ची चाचा।" सत्तू की आंखें एकदम खुशी से चमक उठी।
"हाँ सच्ची।" तिवारी जी ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा और आगे बढ़ चले।
आगे मेन सड़क पे आ के साइकिल पे सवार हुए और पैडल मारते बाजार की तरफ चल पड़े।
छोटा शहर था, लेकिन दिन रात फैल रहा था। मुख्य बाजार में उनकी बर्तन की दुकान थी, जो भगवान की दया से ठीक ठाक चलती थी।
रोज की तरह दुकान पंहुचे... पड़ोसियों से दुआ सलाम की। नौकर कमलेश हमेशा की तरह पहले ही आ चुका था... उसने चाबी लेकर शटर उठाया और उनके गद्दी पर बैठते ही कारोबारी दिन की शुरुआत हो गयी।
करीब चार बजे बाजार में हलचल हुई। एक हिस्से में, जिधर से मेन रोड गुजरती थी... अफरा तफरी का अहसास हुआ और शोर सा मचने लगा।
लोग कौतहूलवश अपने काम धंधे छोड़ उधर आकर्षित होने लगे थे।
तिवारी जी भी बड़ी देर तक अपनी जिज्ञासा को दबाये रहे, लेकिन जब कोलाहल बढ़ता ही गया तो वे दुकान से निकल कर सड़क तक आ गये।
उस तरफ कुछ धुआँ सा दिखने लगा था... उनकी जिज्ञासा और बढ़ गयी और तीव्र अनिच्छा के बावजूद भी वे उधर बढ़ने लगे।
नजदीक पंहुचते-पंहुचते आसपास होती चिमगोइयों से उन्हें इतना तो समझ में आ गया कि मामला कुछ 'गाय' से संबंधित था और वे मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना करने लगे कि किसी की जान न गयी हो।
पर नजदीक पंहुचने पर स्पष्ट हो ही गया कि उनकी आशंका निर्मूल नहीं थी।
जोश में धधकती आवाजों के समंदर से वह शब्द उन्होंने खोज ही लिये जो बताते थे कि किसी 'मुल्ले' ने गौमाता को ऐसा हकारा था कि गौमाता वहां से गुजरते एक ट्रक के पिछले पहिये के नीचे आ कर शायद मर ही गयी थी। ट्रक ड्राइवर तो मौके की नजाकत देख कर भाग निकला था, लेकिन गौमाता को खदेड़ने वाला 'मुल्ला' हाथ आ गया था।
और इसका अंजाम यह हुआ था कि पगलाई भीड़ ने ट्रक को फूंक दिया था जो धूं-धूं करके जल रहा था और उस 'मुल्ले' को इतना पीटा था कि बचने की कोई उम्मीद नहीं थी और अब शायद उसके निश्चल हो चुके शरीर को उसी जलते हुए ट्रक में झोंकने जा रहे थे... हत्यारी भीड़ गुंजीले समर्थन के साथ इस 'मनोरंजक' नजारे का दृश्यपान कर रही थी।
धौंकनी की तरह धड़कते दिल को काबू में करने की कोशिश के साथ तिवारी जी भीड़ को चीरते हुए से आगे पंहुचे तो उसी क्षण उस 'मुल्ले' को बस आग में डाला गया था और उससे एक सेकेंड पहले वह उस 'मुल्ले' का लगभग मुर्दा हो चुका खून सना चेहरा देख पाये थे और उनकी धड़कनें लगभग थम गयी थीं।
बचपन से खिलाते आये थे उसे... इतनी बुरी तरह बिगड़ने के बावजूद उसका चेहरा वे पहचान सकते थे... वह सत्तू था। उसपे दया खा के दिया गया कुर्ता, प्यार से छीनी गयी टोपी और मंदबुद्धि में बढ़ी सी दाढ़ी शायद उसकी 'पहचान' बन गयी थी। उनकी आंखों के आगे अंधेरा फैल गया... क्यों बुलाया था उन्होंने उस पगले को।
जलती हुई आग, उठता हुआ गहरा धुआँ और जलते हुए इंसानी गोश्त की चिरांध गवाही दे रही थी कि धर्म की रक्षा कर ली गयी थी...
और बेबस लाचार से खड़े तिवारी जी उस हत्यारी भीड़ के बीच अपने आप पर शर्मिंदा हो रहे थे।