कामिल भाई को जितनी बेबसी इस वक्त महसूस हो रही थी, उतनी ही झुंझलाहट और पछतावा भी। जिस वक्त चारबाग से अमेठी के लिये ट्रेन पकड़ी थी... यह अंदाजा हर्गिज नहीं था कि यह वक्त भी देखना पड़ेगा।
उनके साथ बेगम थीं, दो जवान बेटियाँ नरगिस और शहरीन थीं... तीनों हस्बे दस्तूर बुर्के में मलबूस थीं और बेटियों से छोटा बेटा आमिर था। वे एक सीट पे ही लाईन से बैठे थे और सामने की सीट पे भी चार लोग बैठे थे, जबकि दो खिड़की वाली सीटों पर।
और वे हट्टे-कट्टे, गेरुआ गमछा डाले लड़के बछरावां से शोर मचाते चढ़े थे। ट्रेन चलने पे उनमें से एक वहां उन्हें देख ठिठका, और उसके इशारे पर बाकी भी वहीं थम गये। न सिर्फ कामिल मियाँ असहज हुए बल्कि साथ की महिलायें भी नर्वस हो गयीं... हालाँकि हुआ वही, जिसकी उन्हें आशंका थी। वे संख्या में आठ रहे होंगे... दो कामिल भाई के ऊपर वाली बर्थ पे चढ़ लिये तो दो सामने की बर्थ पे जबरन जगह बना के बैठ गये, दो नरगिस के इधर-उधर जबरदस्ती बैठ गये और दो बीच की जगह में ही खड़े रहे।
कामिल भाई ने एतराज किया, बेगम चिल्ला पड़ीं लेकिन दोनों के कान पे जूं न रेंगी थी। उल्टे उन्होंने बेटे आमिर को जबरदस्ती खींच कर सामने कर दिया, जहां दो लड़कों में से एक ने अपनी गोद में बिठा लिया। बेगम आग बबूला हुई चिल्लाती रह गयीं और कामिल भाई गिड़गिड़ाते रह गये, लेकिन उन दो खड़े लड़कों में से एक बेगम और शहरीन के बीच धंस गया।
ऐसी जिल्लत कामिल भाई ने कभी महसूस नहीं की थी, उन्होंने वहां मौजूद दूसरे लोगों से फरियाद की मगर वे सब भी कसमसा कर रह गये और जब कामिल भाई ने उठ कर वह जगह छोड़ देनी चाही तो जो अकेला खड़ा था वह भी बैठ गया और महिलाओं को जबरदस्ती पकड़ कर उठने से रोक दिया।
साथ ही वे जोर-जोर से बातें भी कर रहे थे। वे बातें, जो उन्हें चोर बना रही थीं, गद्दार बना रही थीं, आतंकवादी बना रही थीं और वे बेचारगी से हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहे थे... जबकि लड़कियों के इधर-उधर बैठे दबंगों के हाथ अब उनके जिस्मों को टटोलने लगे थे और अपनी बेबसी पर अब वे बचने की कोशिश करती रोने लगी थीं।
इस शोर से उनसे आगे बैठा एक जींस कुर्ते वाला दढ़ियल युवक भी आकर्षित हो गया था और उठ कर देखने लगा था। माजरा समझते ही उसने किसी को फोन लगाया और थोड़ा आगे बढ़ के चेन खींच दी।
झटके ले कर चूं-चूं करती ट्रेन रुक गयी। दाढ़ी वाले युवक ने आपातकालीन खिड़की से सर निकाल कर कुछ कहा था और फिर पांच हट्टे-कट्टे लड़के उसी डिब्बे में चढ़ कर उसी के पास आ खड़े हुए।
"क्या हो रहा था बे?" उसी युवके ने गरजदार आवाज में पूछा।
"तुझसे मतलब... तू कौन है बे? रिश्तेदार लगते हैं यह तेरे?" ऊपर बैठे दोनों युवक नीचे उतरते हुए बोले।
"है न... मेरा मां-बाप समझ इन्हें और इन्हें बहन भाई समझ। खड़े हो ले इज्जत से।"
"तू जानता नहीं है हमें... साले कटुवे।"
"चलो, नीचे उतर कर बता दो कौन हो। मेरे हिसाब से तो दो कौड़ी के सड़कछाप आवारा गुंडे हो।"
"बेटा जानता नहीं है, पर काट देंगे... सरकार हमारी है।"
"अच्छा, तो सरकार गुंडागर्दी करने के लिये भी होती है। बुला ले अपनी सरकार को भी।"
"तुम साले आतंकवादी हो और हमें धौंस दे रहे हो।"
"तेरे घर में बम फोड़ दिया क्या रे... तेरी अम्मा मार दी। जिन आतंकवादियों की बात कर रहा है, वे रिश्तेदार है इनके? इनकी जिम्मेदारी है कि वे जो कर रहे हैं तो उसका बिल इनसे वसूलेगा। किसने हक दिया यह तुझे?"
"गद्दार हो तुम लोग... तुम्हारी कौम?"
"आईएसआई के लिये जासूसी करने में तो तुम्हारे लोग पकड़े गये थे, तुम तो सब गद्दार न हो गये... यह सब गद्दार हो गये। क्या गद्दारी की मैंने, इन चाचा ने... बता जरा। नाम भी जानते हो हमारे, कि चल दिये लठ लेकर गद्दार ठहराने।"
"पाकिस्तान की जीत पर खुश होते हो... भारत की हार पटाखे दगाते हो। यह गद्दारी नहीं है?"
"खुद देखा कहीं या कव्वा कान ले गया का शोर सुन कर कव्वे के पीछे दौड़ पड़े। और देखा तो ऐसा करने वाले से सवाल पूछा, मना किया उसे... सूचना दी पुलिस को उसकी हरकत की? कुछ भी किया या उड़ता तीर खुद के भुंका कर घायल हो गये?"
"तुम साले गाय खाते हो... हम उसे माता मानते हैं और तुम..."
"माता मानते हो तो कचरे के ढेर पर खड़ी माओं की सेवा भी कर लिया करो कभी, कभी बड़े-बड़े कत्लखानों में मित्रों के हाथों कटती माताओं की परवाह भी कर लिया करो। बाकी प्रदेश में तो वैसे भी गोवध प्रतिबंधित है। जो ऐसा कर रहा है, उसकी खबर पुलिस को दो। पकड़वाओ उसे, कि खुद सजा दोगे... और यहां यह चाचा तुम्हें गाय ले जाते या खाते दिख रहे हैं?"
"तुम सिर्फ पांच-छः हो और यहां भीड़ है और सब हमारे ही भाई हैं... समझ लो।"
"ऊंहूं... और भी हैं। तुम झगड़ा तो शुरू करो, आ जायेंगे वह सब भी और यकीन करो बिना हाथ-पांव तुड़वाये छुटोगे नहीं। रही भीड़... तो भीड़ बुजदिल होती है, हमेशा ताकत का साथ देती है। अब तक तुम ताकतवर थे तो चुप रह कर तुम्हारा समर्थन कर रही थी, लेकिन अभी तुम लोग पिटोगे तो यह हमारे साथ खड़े हो कर गवाही देंगे कि तुम लोग गुंडागर्दी कर रहे थे। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भीड़ हिंदू है या मुस्लिम।"
ऐसा लगा जैसे वे कसमसा कर रह गये हों... फिर आपस में इशारा करते नीचे उतरने को बढ़ने लगे।
"देख लेंगे तुम लोग को।"
"ऐनी टाईम... यूनिवर्सिटी जाते हैं पढ़ने। रोज मिलेंगे।"
वे नीचे उतरे तो ट्रेन सीटी देती दुबारा सरकने लगी थी। कामिल भाई की जान में जान आई। पूरा परिवार आंसुओं से डबडबाई आंखों से कृतज्ञतापूर्वक उन फरिश्तों को देख रहा था। कामिल भाई के हाथ जुड़ गये शुक्राने में।
"शश-शुक्रिया बेटा।" रूंधे गले से वे बस इतना कह पाये।
"अरे कोई नहीं चचा... फिक्र मत कीजिये, जरूरत पड़ेगी तो घर तक छोड़ आयेंगे आपको। दुनिया अभी इतनी भी बुरी नहीं हुई।"
कांपती पिंडलियों पर वह फिर बैठ गये। आंखें उन सभी की नम थीं।
"अबे नाम तो बता दे चाचा को, हमें याद किस रूप में करेंगे।" युवक के साथियों में से एक बोला।
"हाँ चाचा... मेरा नाम अभिषेक है, यह असीम, यह आकाश, यह अजय, यह आलोक और यह संतोष... बुरा मत मानियेगा चाचा, नाम इसलिये बताये कि आप यह धारणा लेकर घर न जायें कि हिंदू बुरे होते हैं। भले वे धर्म का सहारा लें, लेकिन अच्छे और बुरे हिंदू या मुसलमान नहीं... बल्कि अच्छे और बुरे लोग होते हैं।"
और उनकी आंखों में थमे आंसू कोरों से छलक कर गालों पे फैल गये।