कर्म का फल
एक गाँव में एक सुनार का घर था। उस सुनार का काम बहुत अच्छा चलता था। काम बढ़ाने के उद्देश्य से उसने एक दिन बहुत सारा सोना मंगवाया। इस बात का जब गाँव में रात को पहरा देने वाले पहरेदार को पता चला तो उसके मन में लालच आ गया।
जैसे ही रात हुयी, वह पहरेदार उस सुनार के घर में घुसा और उसे मार दिया। सुनार को मारने के बाद वह जैसे ही बाहर निकला तभी उसे सुनार के एक पड़ोसी ने देख लिया। वह पड़ोसी बहुत ही सज्जन पुरुष था। उसे अचानक देख पहरेदार घबरा गया। उस सज्जन पुरुष ने पहरेदार के हाथ में जब बक्सा देखा तो उस से सवाल पूछना शुरू कर दिया,
“ये बक्सा लेकर कहाँ जा रहे हो?”
“श…श….श….शोर मत मचाओ देखो इसमें से थोड़ा सोना तुम ले लो। थोड़ा मैं ले लेता हूँ।"
“मैं ले लूँ? मैं गलत काम नहीं कर सकता।”
यह सुन पहरेदार ने उसे डराने के लहजे में उस से कहा,
“देख मेरी बात मान जा। नहीं तो बहुत बुरा होगा। फिर मुझे दोष मत देना।”
धमकी देने पर भी जब वह सज्जन पुरुष न माना तो उस पहरेदार ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। जब सब लोग इकट्ठा हो गए तब वह सबको झूठी कहानी बताने लगा।
“ये आदमी सुनार के घर से यह बक्सा लेकर आ रहा है। मैंने इसे पकड़ लिया।”
जब सब लोगों ने सुनार के घर जाकर देखा तो सुनार मरा पड़ा था।
पुलिस को बुलाया गया और पुलिस उस निर्दोष व्यक्ति सुनार के क़त्ल के इल्जाम में पकड़ कर ले गयी।
मामला कोर्ट पहुंचा। उस आदमी ने जज के सामने बहुत कोशिश की कि खुद को निर्दोष साबित कर सके। लेकिन सारे सबूत और गवाह उसके खिलाफ थे। जैसे ही उसको फांसी की सजा हुयी वैसे ही उसके मुंह से निकला,
“भगवान के दरबार में कोई न्याय नहीं है। जिसने मारा है उसे कोई सजा नहीं और जिसने कुछ किया भी नहीं उसे फांसी की सजा मिल गयी।”
जज को उसके इन शब्दों से लगा कहीं उन्होंने फैसले में कोई गलती तो नहीं कर दी।
जज ने सच का पता लगाने के लिए एक योजना बनाई।
अगली सुबह एक आदमी रोता-रोता जज के पास आया और बोला,
“सरकार हमारे भाई की हत्या हो गयी है। इसकी जांच होनी चाहिए।”
उस समय जज ने फांसी की सजा मिले व्यक्ति और उस पहरेदार को उस मरे हुए व्यक्ति की लाश उठा कर लाने को कहा।
जब दोनों दिए गए पते पर पहुंचे तो देखे की खून से लतपथ लाश चारपाई के ऊपर पड़ी है और उस पर चादर डाली गयी है। दोनों ने उस चारपाई को उठाया और चलने लगे। रास्ते में उस पहरेदार ने उस फांसी की सजा मिले व्यक्ति को कहा,
“अगर तुमने उस रात मेरा कहा मान लिया होता तो तुम्हें फांसी की सजा भी न होती और सोना मिलता सो अलग।”
इस पर उस व्यक्ति ने जवाब दिया,
“मैंने तो सच का साथ दिया था। फिर भी मुझे फांसी हो गयी। भगवान ने न्याय नहीं दिलाया मुझे।”
चलते-चलते जब दोनों जज के सामने पहुंचे तो चारपाई पर पड़ी हुयी लाश एकदम उठ गयी।
असल में वह लाश नहीं थी बल्कि जज द्वारा सच का पता लगाने के लिए गया एक सिपाही था। उस सिपाही ने उठ कर सारी सच्चाई जज को बता दी। जज सच्चाई सुन कर बहुत हैरान हुए। पहरेदार को कैद कर लिया गया।
न्याय हो गया था लेकिन जज के मन को अभी भी शांति नहीं मिली थी। सो उन्होंने उस सज्जन व्यक्ति से कहा,
“इस मामले में तो तुम निर्दोष साबित हो चुके हो लेकिन सच-सच बताओ तुमने कभी कोई हत्या की है क्या?”
जज की चालाकी वह व्यक्ति पहले देख ही चुका था। इसलिए अब वह झूठ बोलने से डर रहा था। इसलिए उसने सच्चाई बतानी शुरू की।
“बहुत पहले की बात है एक दुष्ट व्यक्ति मेरी गैरहाजरी में मेरी पत्नी से मिलने आया करता था। मैंने अपनी पत्नी और उस व्यक्ति को समझाने का बहुत प्रयास किया मगर वे नहीं माने। एक दिन जब मैं अचानक घर [पर गया तो देखा कि वह व्यक्ति घर पर ही था। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने तलवार से उसे मार दिया और घर के पीछे बहती नदी में उसकी लाश फेंक दी। इस बारे में कभी किसी को कुछ भी नहीं पता चला।”
जज ने कहा, “मैं भी यही सोच रहा था कि मैंने कभी कोई गलत काम नहीं किया न ही किसी से रिश्वत ली फिर मेरे हाथ से ये गलत फैसला हुआ कैसे। खैर अब तुम्हें अपने कर्मों का फल तो भोगना ही होगा। पहरेदार के साथ अब तुम्हें भी फांसी होगी।”
ये बात सो सच ही है कि कर्मों का फल भले ही देर से मिले लेकिन मिलता जरूर है। फल कैसा होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके कर्म कैसे थे। आप अपने बुरे कर्मों का फल अच्छे कर्म कर के टाल नहीं सकते।
जैसा कि उस व्यक्ति ने पहरेदार को रोक कर अच्छा कर्म करना चाहा। लेकिन उस अच्छे कर्म के कारण उसके बुरे कर्म नहीं भुलाए जाएँगे। इसीलिए उसे उसके पुराने कर्मों की सजा मिली। भले ही देर से मिली लेकिन मिली।
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