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कवि बच्चन के साथ कुछ दूर

15 सितम्बर 2016

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कवि मैं तुमको जीना चाहती हूँ . तुम हो यहीं ... मधुशाला , मधुबाला , ..... अपने एकांत संगीत में . कभी तेज , कभी शेष , कभी आशा , कभी गुमशुदा राहों की तरह . अपनी कलम में तुम्हें मढना चाहती हूँ - तुम्हें लूँ तो कैसे ? स्व की तरह लेना सही होगा , क्योंकि जो तुम हो , वही तो मैं हूँ . क्या लिखते समय तुम्हारे अन्दर वह अल्हड़ लड़की नहीं थी , जो कभी गई बात में थी , कभी दीपशिखा के स्वप्निल आँखों में ...


कवि तुम्हारा परिचय यूँ है -


" मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,

फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर

मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,

मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,

जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,

मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,

मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;

है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता

मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!

मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,

सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;

जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,

मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!

मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,

उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,

जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,

मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?

नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!

फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?

मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,

मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;

जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,

मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,

शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,

हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,

मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,

मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;

क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,

मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,

मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;

जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,

मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ! "



और मेरा परिचय यूँ -



" शब्दों की गुफाओं में

एक मौन तपस्या

कब दिन हुआ

कब रात हुई .... सब मौन रहा ....

बादल गरजे , बिजली कड़की

बूंद बूंद पानी बरसा

बूंद बूंद के भावों से

शब्दों का परिधान बना

आकृति जो साकार हुई

मेरा सपना साकार हुआ -

कुछ देर रुको

और गौर करो -

मैं हूँ शब्दांश

मैं हूँ भावार्थ

मैं ही हूँ गुंजित प्रतिध्वनि

मैं मौन भी हूँ

मैं स्वर भी हूँ

मैं विस्मित अनकही बातें हूँ

यह नाम तो बस एक माया है

सच भावों की एक छाया है

मेरा परिचय यही पहले था

मेरा यही परिचय आज भी है "



अपने मौन और शब्द में तुम कहते हो -


"एक दिन मैंने

मौन में शब्द को धँसाया था

और एक गहरी पीड़ा,

एक गहरे आनंद में,

सन्निपात-ग्रस्त सा,

विवश कुछ बोला था;

सुना, मेरा वह बोलना

दुनियाँ में काव्य कहलाया था।


आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,

अब न पीड़ा है न आनंद है

विस्मरण के सिन्धु में

डूबता सा जाता हूँ,

देखूँ,

तह तक

पहुँचने तक,

यदि पहुँचता भी हूँ,

क्या पाता हूँ। "


और मैं अपने भीतर के सन्नाटे में चीखती हूँ - अरे कोई है ? मौन से परे एक तलाश -


" सन्नाटा अन्दर हावी है ,

घड़ी की टिक - टिक.......

दिमाग के अन्दर चल रही है ।

आँखें देख रही हैं ,

...साँसें चल रही हैं

...खाना बनाया ,खाया

...महज एक रोबोट की तरह !

मोबाइल बजता है ...,

उठाती भी हूँ -

"हेलो ,...हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ......"

हँसती भी हूँ ,प्रश्न भी करती हूँ ...

सबकुछ इक्षा के विपरीत !

...................

अपने - पराये की पहचान गडमड हो गई है ,

रिश्तों की गरिमा !

" स्व " के अहम् में विलीन हो गई है

......... मैं सन्नाटे में हूँ !

समझ नहीं पा रही ,

जाते वर्ष से गला अवरुद्ध है

या नए वर्ष पर दया आ रही है !

........आह !

एक अंतराल के बाद -किसी का आना ,

या उसकी चिट्ठी का आना

.......एक उल्लसित आवाज़ ,

और बाहर की ओर दौड़ना ......,

सब खामोश हो गए हैं !

अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं ,

देखता है ,

आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं !

चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ?

-मोबाइल युग है !

खैर ,चिट्ठी जब आती थी

या भेजी जाती थी ,

तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी ,

और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे

नशा था - शब्दों को पिरोने का !

अब सबके हाथ में मोबाइल है

पर लोग औपचारिक हो चले हैं !

मेसेज करते नहीं ,

मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता ,

या टाइम नहीं होता !

फ़ोन करने में पैसे !

उठाने में कुफ्ती !

जितनी सुविधाएं उतनी दूरियां

वक़्त था ........

धूल से सने हाथ,पाँव,माँ की आवाज़ .....

"हाथ धो लो , पाँव धो लो "

और , उसे अनसुना करके भागना ,

गुदगुदाता था मन को .....

अब तो !माँ के सिरहाने से ,

पत्नी की हिदायत पर ,

माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा !

क्षणांश को भी नहीं सोचता

" माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ......"

.......सोचने का वक़्त भी कहाँ ?

रिश्ते तो

हम दो ,हमारे दो या एक ,

या निल पर सिमट चले हैं ......

लाखों के घर के इर्द - गिर्द

-जानलेवा बम लगे हैं !

बम को फटना है हर हाल में ,

परखचे किसके होंगे

-कौन जाने !

ओह !गला सूख रहा है .............

भय से या - पानी का स्रोत सूख चला है ?

सन्नाटा है रात का ?

या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ?

कौन देगा जवाब ?

कोई है ?

अरे कोई है ???...



सहयात्री बनो तुम या मैं ...पर शब्दों के इस रिश्ते में तुम तुम हो और मैं मात्र एक अकिंचन शब्द -तुम विस्तार -



" नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!


वह उठी आँधी कि नभ में

छा गया सहसा अँधेरा,

धूलि धूसर बादलों ने

भूमि को इस भाँति घेरा,


रात-सा दिन हो गया, फिर

रात आ‌ई और काली,

लग रहा था अब न होगा

इस निशा का फिर सवेरा,


रात के उत्पात-भय से

भीत जन-जन, भीत कण-कण

किंतु प्राची से उषा की

मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!


वह चले झोंके कि काँपे

भीम कायावान भूधर,

जड़ समेत उखड़-पुखड़कर

गिर पड़े, टूटे विटप वर,


हाय, तिनकों से विनिर्मित

घोंसलो पर क्या न बीती,

डगमगा‌ए जबकि कंकड़,

ईंट, पत्थर के महल-घर;


बोल आशा के विहंगम,

किस जगह पर तू छिपा था,

जो गगन पर चढ़ उठाता

गर्व से निज तान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!


क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों

में उषा है मुसकराती,

घोर गर्जनमय गगन के

कंठ में खग पंक्ति गाती;


एक चिड़िया चोंच में तिनका

लि‌ए जो जा रही है,

वह सहज में ही पवन

उंचास को नीचा दिखाती!


नाश के दुख से कभी

दबता नहीं निर्माण का सुख

प्रलय की निस्तब्धता से

सृष्टि का नव गान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!..."



मैं आरम्भ का एक तिनका -



" एक खिलखिलाती हँसी मेरे पास रुकी है ,

एक गुनगुनाती नदी मेरे पास गा रही है,

सूरज -

नए विचार , नया तेज , नई दृढ़ता

किरण कवच में लेकर आया है .....

बड़ों का आशीर्वाद,

बच्चों की मासूमियत

हवाओं में झूम रही है.........

आओ ,

हम इन्हे मिलकर बाँट लें

और एक नई शुरुआत करें !"



.... तुम संबल बनते हो -


"वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छांह भी,

मांग मत, मांग मत, मांग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ


तू न थकेगा कभी,

तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ


यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु श्वेत रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ "



मैं जिजीविषा की नन्हीं सी किरण -


" कभी दिल ना लगे,

कोई बात ना मिले,

दसों दिशाएँ स्तब्ध हों,

सूर्य क्षितिज में डूबता लगे,

मन में अंधेरों की बारिश सी हो-

..............

अनजानी दिशा में आवाज़ देना खुद को,

प्रतिध्वनि बन वह तुम्हारे पास आएगी

हमसफ़र बन सूरज के रथ का स्वागत करेगी

दसों दिशाओं में मंगलाचार बन प्रकाश का आह्वान करेगी.........

विश्वास ना हो तो आजमा लो

तुम्हारा 'स्व' कितना शक्तिशाली है "


हे कालजई कवि , मैं तुम्हें भावों का तर्पण अर्पण करती हूँ ....

पढ़ पढ़ करके मधुशाला ....

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