पूर्वाभास तो रहा सत्य का
पर ...
होनी काहू बिधि ना टरै भी एक सत्य है
और इसी सत्य में
पूर्वाभास विलीन होता रहा !
पूर्वाभास को सोचते हुए
पछताते हुए
रास्ते में कई सत्य औंधे पड़े मिले
ज्योंही कन्धे पर हाथ रखा
चिहुंक कर पूछा -
"सत्य का आभास था
तो अनजान क्यूँ रहे ?"
निरुत्तर होकर भी
मैंने जवाब दिया
क्योंकि तर्क का अचूक बाण था जिह्वा पर
"होनी को कौन टाल सका है?"
क्या सच में नहीं टाला जा सकता था ?
यदि नहीं
तो समय पर उसे कहा तो जा सकता था ?
पर क्या कह देने से वह मान्य हो जाता ?
लोग, जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता
उन्हीं लोगों का भय
होनी के रास्ते बनाता है
सत्य के सूक्ष्म प्रकाश में ही
भय झूठ बोलता है
फिर अड़ जाता है
और मात खाकर
पूर्वाभास को बोलकर सिसकता है
काश !
पहले ही रो लेता !!!
लेकिन,
बिना परिणाम के
आभास की कौन सुनता है
वह तो तर्क की कसौटी पर होता है
अस्तित्वहीन लोगों के प्रश्नों के व्यूह में ...
होनी के अट्टाहास के दावानल में
व्यक्तित्व और जवाब में बहुत बड़ा अंतर होता है
समझदारी बेवकूफ बनी
एक कोने में जवाब ढूँढती है !
निःसंदेह,
पलायनयुक्त जवाब के मध्य
बुत बने होते हैं हम !!!