मन हमेशा असमंजस में होता है
बचपन में लौट जाऊँ
इक्कट दुक्कट खेल ूँ
या जी लूँ फिर से सोलहवाँ साल
आईने में खुद को देखकर इतरा जाऊँ !
जिम्मेदारियों का सामान
कुछ देर के लिए कोई माथे पर रख ले
तो थोड़ा पीछे घूम आऊँ
....... ऐसे ख्याल जी बहलाने को आते हैं
सोचकर वक़्त गुजरता है
लेकिन ये वर्तमान अपना है
ख़ास है
किसी और को कैसे दे दूँ
जिम्मेदारियों का रुख कैसे बदल दूँ
जो सपने उभरते हैं इन जिम्मेदारियों की थकान में
उसे किसी और को कैसे दे दूँ भला !
असमंजस में रोज होता है मन
वक़्त-बेवक़्त कभी भी
मैं भी - नियम से हर दिन
असमंजसता के धूल झाड़ती हूँ
सीट के बिछाती हूँ वर्तमान
और हर कोने से उसे देखकर
खुद पर यकीन कर
मुस्कुरा उठती हूँ
कलम से अपनी सोच के शब्द उठाकर
इधर उधर रखती हूँ
फिर आँखें मूंदकर
कागज़ को बेतरतीब फाड़कर नाव बनाती हूँ
आँखें खोलकर एक षोडशी को
आईने से गुफ्तगू करते देखती हूँ …