एक मुलाकात कितनी सारी गिरहों को खोल देती है, चुप्पी तोड़कर बहुत कुछ कह जाती है …
मन-मस्तिष्क के गोलम्बर पर कल बुद्ध,यशोधरा, राहुल से बारी बारी मिली, उन्हें सुना … उनको सुनकर मैंने भी चाहा … क्रमशः यूँ -
मैं बुद्ध
लौटना चाहता हूँ
ज्ञान अरण्य के एकाकीपन से
अलौकिक आत्मिक प्रकाश में
खेल ना चाहता हूँ राहुल के साथ "जीवन"
उसे बताना चाहता हूँ एक घर की अहमियत !
कहना चाहता हूँ
असमंजसता की स्थिति से
पिता किस तरह उबारते हैं
माँ क्या क्या उपस्थित करती है !
उसे ज्ञान की पहली किरण देना चाहता हूँ …
माँ और पत्नी के रूप में
जो स्त्री अन्नपूर्णा बनती है
छायादार वृक्ष बनती है
थकी पलकों
थके-हारे मन की स्थिति में
लोरी बनकर प्रवाहित होती है
वह किस तरह अहर्निश जलते दीये की मानिंद जलती रहती है !
समझाना चाहता हूँ
कि राहुल,
प्राप्य के लिए भटकना
भगवान बना देता है
जबकि भगवान आत्मा को मांजने के लिए
गर्भ से अपने साथ होते हैं ....
बस उनको पाना होता है !
एक घर के दायरे में सबकुछ होता है
भूख-प्यास,
कर्तव्य-अधिकार
एकांत, शोर
कुछ आसक्ति कुछ विरक्ति
इसके लिए
अपने मन के उलझे इन फंदों से
अदृश्य महाभिनिष्क्रमण भी ज़रूरी नहीं है !
घर की नींव
उसकी ईंटों में एकाग्रता ज़रूरी है
अपनी उम्र को
अपने लगाये पौधे में जीने की ज़रूरत है …
मैं बुद्ध, फिर से सिद्धार्थ होना चाहता हूँ !!
मैं यशोधरा,
मैं लौटना चाहती हूँ उस दहलीज पर
जहाँ मैं सिद्धार्थ की पत्नी बनकर
रुनझुन सपनों का खोंइछा लेकर उतरी थी
और रात के हर प्रहर में
"ॐ" के शून्य प्रवेश में प्रवेश करती गई …
सप्तपदी के वचन दुहरानेवाला व्यक्ति
मुझमें ढूंढ रहा था
जन्म,मृत्यु,बुढ़ापा, रुग्णावस्था का रहस्य
मेरे हर कर्तव्य-प्यार-ख्याल के मध्य रुग्णता और मृत्यु से मिलता रहा …
जबकि वह रहस्य
मेरे अंदर राहुल बनकर स्पंदित हुआ
जो जन्म लेते परिपक्व हो गया
मैं वहाँ लौटकर
सिद्धार्थ की उलझनों को सुनना चाहती हूँ
उन सारे क्षणों को जीना चाहती हूँ
जिसमें सिद्धार्थ सिद्धार्थ था ही नहीं !
राहुल को गोद में लेकर
मैं जाना चाहती हूँ उन स्थलों पर
जहाँ जहाँ सिद्धार्थ अपनी तलाश करता रहा
मैं उसकी भिक्षा का पात्र बनना चाहती हूँ
मैं सुजाता के खीर की मिठास बनना चाहती हूँ
मैं बोधिवृक्ष बनना चाहती हूँ
मैं धरती का चप्पा चप्पा बनना चाहती हूँ
जहाँ जहाँ सिद्धार्थ के कदम पड़े थे
मैं महाभिनिष्क्रमण की स्थिति नहीं लाना चाहती
मैं उस खोज को अग्नि बनाकर
असंख्य फेरे लेना चाहती हूँ
मैं राहुल के अंदर
उसके मौन प्रश्नों का उत्तर बन जाना चाहती हूँ
मैं सिद्धार्थ के संग
उसे आध्यात्मिक लोरियाँ सुनाना चाहती हूँ
मैं यशोधरा
फिर से उस दहलीज पर उतरना चाहती हूँ !
मैं राहुल
मैं पुनः जन्म लेना चाहता हूँ
अपनी माँ के कर्तव्यों के मध्य
उसके छूट गए स्वप्नों की भाषा को
अपने खेल का अंश बनाना चाहता हूँ
उसकी लोरियों में
उसके भीतर बहती सिसकती गंगा को सुनना चाहता हूँ …
चाहता हूँ
फिर से जब माँ यशोधरा मुझे मेरे पिता को दे
मैं उनको अपनी माँ के हर ज्ञान कोंपलों का ज्ञान बता सकूँ
जो मेरे जीवन के उद्देश में बोधित्व को पाते गए …
और मैं …
उस पुनरावृति की साक्ष्य बनना चाहती हूँ
शुद्दोधन के महल की ईंट बनना चाहती हूँ
मैं सिद्धार्थ के जन्म से
राहुल के जन्म तक
एक जाप करना चाहती हूँ
यज्ञ की अग्नि में
सोहम की समिधा बनना चाहती हूँ …