वह लड़की
साँवली सी
बला की खूबसूरत
शिवानी की कृष्णकली सी …
उसकी हँसी से
बचपन की कहानियों जैसे फूल झड़ते
आँखों से मोती बरसते
'देवा ओ देवा' .... कहकर
वह खाली कमरों में दौड़ लगाया करती थी !
हाँ,
कमरे की अदृश्य प्रतिध्वनियों से
उसकी दोस्ती थी
जिन्हें कोई आकार देने से डरती थी
छवि मिटने का बेहद डर था उसे
नाम जो कभी थे
वे अतीत के गह्वर से झाँकते
आवाज़ देते
और वह बीमार हो जाती
दवा लेते लेते
एक दिन उसने हल निकाला
खाली कमरों को इन नामों से भरकर खेल ेगी …
बचपन के दोस्त हों
या कहानी से निकले पात्र
सबको एक जगह दी
और जीने लगी खुद में
पारो
कृष्णकली
यशोधरा
और उर्मिला को … !
पात्रों का चयन हमेशा अदभुत रहा
'न हन्यते' की अमृता बन
उसने घर की जिम्मेदारियाँ निभाईं
और मिर्चा के जेहन में
खुद को जीवंत बनाया !
प्रतिध्वनियाँ अपनी ही सही
सन्नाटे में सहचर बन
निरंतर साथ होती हैं
और इस तरह बना रहता है साँवला सौंदर्य
फूलों मोतियों से
भरा रहता है आँचल ।