मैं अर्जुन नहीं होना चाहती
गुरु द्रोण से एकलव्य को लेकर प्रश्न
अर्जुन की प्रतिभा को कम करता है
यदि अर्जुन की ईर्ष्या एकलव्य को निरस्त कर गई
तो उसके कुशल धनुर्धर होने पर दाग भी बन गई
द्रोण ने गुरु के नाम पर पक्षपात किया
अपनी मूर्ति के लिए दक्षिणा की माँग करके
एकलव्य का अंगूठा लिया
.... मैं द्रोण भी नहीं होना चाहती
एकलव्य की प्रतिभा ईश्वरीय देन थी
उसकी निष्ठा थी उसके अंदर का द्रोण
मूर्ति उसका विश्वास
नहीं देना था उसे अंगूठा
घातक उद्देश्य का लक्ष्य साधना था
एक क्षण में यूँ सबकुछ नष्ट नहीं करना था
…… मैं एकलव्य भी नहीं होना चाहती
मैं कर्ण की पीड़ा
उसकी सहनशीलता
उसकी विद्युत गति की तीरंदाजी के आगे नतमस्तक हूँ
लेकिन कर्ण होना नहीं चाहती !
अपमान को ही उद्देश्य बनाना था
तो दानवीरता को संयमित करना था
सबकुछ साथ ढोने पर
जीवन का रथ यूँ ही धंसता है
सही-गलत से परे प्राण देना होता है !
मैं वही रहना चाहती हूँ
जो ईश्वर ने मुझे बनाया
प्राण संचार करते हुए माँ और पिता ने सिखाया
कालचक्र के आगे सर झुकाती हूँ
जिसने ज़रूरत पड़ने पर
मुझे रौंदा
चाक पर चढ़ाया
और समयानुसार ढाला !