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मैं वही रहना चाहती हूँ जो ईश्वर ने मुझे बनाया

7 सितम्बर 2016

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मैं अर्जुन नहीं होना चाहती
गुरु द्रोण से एकलव्य को लेकर प्रश्न
अर्जुन की प्रतिभा को कम करता है
यदि अर्जुन की ईर्ष्या एकलव्य को निरस्त कर गई
तो उसके कुशल धनुर्धर होने पर दाग भी बन गई

द्रोण ने गुरु के नाम पर पक्षपात किया
अपनी मूर्ति के लिए दक्षिणा की माँग करके
एकलव्य का अंगूठा लिया
.... मैं द्रोण भी नहीं होना चाहती

एकलव्य की प्रतिभा ईश्वरीय देन थी
उसकी निष्ठा थी उसके अंदर का द्रोण
मूर्ति उसका विश्वास
नहीं देना था उसे अंगूठा
घातक उद्देश्य का लक्ष्य साधना था
एक क्षण में यूँ सबकुछ नष्ट नहीं करना था
…… मैं एकलव्य भी नहीं होना चाहती

मैं कर्ण की पीड़ा
उसकी सहनशीलता
उसकी विद्युत गति की तीरंदाजी के आगे नतमस्तक हूँ
लेकिन कर्ण होना नहीं चाहती !
अपमान को ही उद्देश्य बनाना था
तो दानवीरता को संयमित करना था
सबकुछ साथ ढोने पर
जीवन का रथ यूँ ही धंसता है
सही-गलत से परे प्राण देना होता है !

मैं वही रहना चाहती हूँ
जो ईश्वर ने मुझे बनाया
प्राण संचार करते हुए माँ और पिता ने सिखाया
कालचक्र के आगे सर झुकाती हूँ
जिसने ज़रूरत पड़ने पर
मुझे रौंदा
चाक पर चढ़ाया
और समयानुसार ढाला !

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बेहतरीन अभिव्यक्ति !

13 सितम्बर 2016

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बहुत अच्छी कविता रश्मि जी।

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बहुत अच्छी तरह सहेजा है अपनी कोमल व् तार्किक भावनाओं को |

7 सितम्बर 2016

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क्यूँ मुझे होड़ में खड़ा करना

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23 अगस्त 2016
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तुम्हारे पास लकड़ी की नाव नहीं , निराशा कैसी? कागज़ के पन्ने तो हैं ! नाव बनाओ और पूरी दुनिया की सैर करो.......... हर खोज,हर आविष्कार तुम्हारे भीतर है , अन्धकार को दूर करने का चिराग भी तुम्हारे भीतर है तुम डरते हो कागज़ की नाव डूब जायेगी , पर अपने आत्मविश्वास की पतवार

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25 अगस्त 2016
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पुष्टि असम्भव है !!

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न विश्वास मिटता है, न अविश्वास की जड़ें खत्म होती हैं - एक ही व्यक्ति के कई रूप होते हैं, सौंदर्य के पीछे कुरूपता, कुरूपता के पीछे सौंदर्य मिल ही जाता है - पर, न हर सौंदर्य कुरूप है न हर कुरूप सुन्दर है शरीर से असमर्थ भी कुशल कारीगर होता है तो कहीं शरीर

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मैंने देखा है

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चलते चलते नज़र पडी एक सवाल खड़ा था - "क्या आपने ज़िंदा जलती औरत को देखा है?" .... सोचने लगी इसका जवाब कौन कैसे देगा ! क्या यह कोई रोमांचक घटना होगी ? - जिसे रोमांचक ढंग से सुनाया जाए या फिर आँख बचाकर निकल जाने का क्षण कि कौन इस मुसीबत में पड़े ! जलते हुए का तात्प

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कटोरे में जो भरा वो इमरोज़ है ...

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हे कृष्ण तुझे पल पल जीने के लिए तेरे बाल स्वरुप को देखने की आशा में मैं हुई गोकुल तेरी बाँसुरी की धुन सुनने के लिए मैं हुई कदम्ब यमुना हुई तुझे छूने के लिए मटकी बनी माखन के लिए यशोदा मईया की धड़कन बनी देवकी की प्रतीक्षा बनी सुदामा की मित्रता बनी राधा के

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( जब तक मानसिकता नहीं बदलती कोई भी परिवर्तन असंभव है .... अब आप अपने आस-पास दृष्टि डालिए, खुद को तौलिये और सच कहने का साहस कीजिये। पहले तो आप इस बात का जवाब दीजिये कि समानता से आपका क्या तात्पर्य है ? ) मैं स्त्री स्वतंत्रता की हिमायती नहीं पर स्त्री शक्ति का जीता ज

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हमें भी किस इतिहास की ज़रूरत है ?

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कुछ कहने के लिए अबाध बहती नदी की तरह बहते जाने के लिए ज़रूरी तो नहीं सम्बोधन एक नाम तो कइयों के होते हैं !तुम्हारा एक नाम है मेरा भी एक नाम है तुम जानते हो मैं जानती हूँ मैं कह रही हूँ तुम सुन रहे हो यह विश्वास ही हमारा नाम है किसी और के लिए एक नाम में भावनाओं को क्यूँ बाँधना !!संभव है यही ख्याल किसी

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समय दो खुद को

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हम खुद से डरते हैंखुद से भागते हैं और जब तक यह होता हैकोई किनारा नहीं मिलता !ज़िन्दगी के हर पड़ाव परऐसा होता है और हम किसी के साथ की प्रतीक्षा करते हैं !गौर करो ...निर्णय हर बार हमारा अपना होता है ...समाज , परिवार यह सब हमारे अन्दर की ग्रंथि हैं ...जहाँ हम तैयार नहीं होते वहाँ समाज और परिवार को हम न

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मन हमेशा असमंजस में होता है बचपन में लौट जाऊँ इक्कट दुक्कट खेलूँ या जी लूँ फिर से सोलहवाँ साल आईने में खुद को देखकर इतरा जाऊँ !जिम्मेदारियों का सामान कुछ देर के लिए कोई माथे पर रख ले तो थोड़ा पीछे घूम आऊँ....... ऐसे ख्याल जी बहलाने को आते हैं सोचकर वक़्त गुजरता है लेकिन ये वर्तमान अपना है ख़ास है किसी

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आदमी और जीवन

12 सितम्बर 2016
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जीवन का आरम्भ हो,मध्य होया समापन किश्त … उसे देखने के लिए हम जब भी खिड़की दरवाजे खोलते हैं तो दर्द सूरज की तरह तपता चौंधियाता मिलता है सुख हवा की तरह मंद मंद छूता है धूप से बचने को हम बंद कर देते हैं खिड़की-दरवाजे प्राकृतिक सुख बाहर रह जाता है कृत्रिम सुख की अंधी दौड़ में हो जाता है सबकुछ तितर बितर एक

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व्यक्तित्व और जवाब में बहुत बड़ा अंतर होता है

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पूर्वाभास तो रहा सत्य का पर ... होनी काहू बिधि ना टरै भी एक सत्य है और इसी सत्य में पूर्वाभास विलीन होता रहा !पूर्वाभास को सोचते हुए पछताते हुए रास्ते में कई सत्य औंधे पड़े मिले ज्योंही कन्धे पर हाथ रखा चिहुंक कर पूछा -"सत्य का आभास था तो अनजान क्यूँ रहे ?"निरुत्तर होकर भी मैंने जवाब दिया क्योंकि त

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कवि बच्चन के साथ कुछ दूर

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कवि मैं तुमको जीना चाहती हूँ . तुम हो यहीं ... मधुशाला , मधुबाला , ..... अपने एकांत संगीत में . कभी तेज , कभी शेष , कभी आशा , कभी गुमशुदा राहों की तरह . अपनी कलम में तुम्हें मढना चाहती हूँ - तुम्हें लूँ तो कैसे ? स्व की तरह लेना सही होगा , क्योंकि जो तुम हो , वही तो मैं ह

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पात्रों का चयन हमेशा अदभुत

25 मार्च 2017
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वह लड़की साँवली सी बला की खूबसूरत शिवानी की कृष्णकली सी … उसकी हँसी से बचपन की कहानियों जैसे फूल झड़ते आँखों से मोती बरसते 'देवा ओ देवा' .... कहकर वह खाली कमरों में दौड़ लगाया करती थी !हाँ, कमरे की अदृश्य प्रतिध्वनियों से उसकी दोस्ती थी जिन्हें कोई आकार देने से डरती थी छवि मिटने का बेहद डर था उसे नाम

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