जीवन का आरम्भ हो,
मध्य हो
या समापन किश्त
… उसे देखने के लिए
हम जब भी खिड़की दरवाजे खोलते हैं
तो दर्द
सूरज की तरह तपता
चौंधियाता मिलता है
सुख हवा की तरह
मंद मंद छूता है
धूप से बचने को
हम बंद कर देते हैं खिड़की-दरवाजे
प्राकृतिक सुख बाहर रह जाता है
कृत्रिम सुख की अंधी दौड़ में
हो जाता है सबकुछ तितर बितर
एक दिन
हल्की धूप
देती है नसीहतें
सिखाती है मायने जीने के
तभी तो -
तपते रेगिस्तान में
एक अलग सुकून मिलता है
…
आदमी और जीवन
ऐसे ही चलता है …।