चलते चलते एहसास नहीं होता
कितनी दूर चले आए
जिस वक़्त में
या तो व्यक्ति जी लेता है
या फिर हार जाता है !
बन जाता है मील का पत्थर
या जीवन के कई अनसुलझे रहस्य
झलक दिखलाकर
उसे दार्शनिक बना देते हैं !
मिटटी के कण में भी मिल जाता है ब्रह्माण्ड
कृष्ण मोर पंख में दिखाई दे जाती है जीवन यात्रा
उधो की हार पर श्रेष्ठता का आभास होता है
हार के आगे की जीत पर
अटूट विश्वास होता है !
मन ही बन जाता है प्रश्नकर्ता
मन ही ज्ञान स्रोत के तरकश से
उत्तर के दैविक वाण चलाता है
मृत्यु के द्वार पर
जिजीविषा के सूक्ष्म अर्थ को
परिभाषित करता है
चलते चलते .... कभी निरर्थक,
कभी सार्थक व्यूह मिल ही जाते हैं
जो मस्तिष्क की चाभी से
खोलते हैं कई द्वार
और मुस्कुराकर कहते हैं -
व्यूह न हो
तो रास्तों का निर्माण कहाँ !
एक भूमिगत होता है
दो भी मुमकिन है
पर …उठकर चलना वही जानता है
जो मुँह के बल गिरता है !