कवि, कभी नहीं चाहता कोई देखे,
उसकी कविता के प्रसव काल को,
प्रसव की इस अप्रतिम वेदना को
मैं स्वयं में संकुचित करना चाहता हूँ.।
घुटनों के माध्यम से उठती अपनी
तनया को आलिंगन कर,
भम्रण-गीतों के माध्यम से साहित्यगत
इहलोक में प्रख्यात कराना चाहता हूँ.।
नई परंपराओं का प्रक्षिशण कर,
वयःसंधि में ओजित लय देकर,
सभी काव्य-सर्जकों के नाद-द्वारों पर
तरुणी की संज्ञा दर्ज कराना चाहता हूँ.।
अपनी कन्या को मर्यादित कर,
परिधान का विशेष ध्यान कर,
वर रूपी पुस्तक के वरकों
के जरिये तुझे अहिवात बनाना चाहता हूँ.।
यौतुक में तुझे स्व नाम देकर
अनन्त तक अमर रहे इक
ऐसी कविता का कवि बनना चाहता हूँ.।
हाँ तेरे जरिये मैं सहित्यजीवी होना चाहता हूँ.।