मैं और कविता
शब्दों को तोड़ मोड़ कर
बिखरा-कर उनको इतर बितर
मैं गहन सोच में खो जाता हूँ।
और इस तरह मैं आदमी से
कभी कुछ और बन जाता हूँ।
बिखरें शब्दों को पुनः समेटकर
संयोग, वियोग का श्रृंगार कर
एक नए अर्थ को जन्म दे जाता हूँ।
और इस तरह मैं मानव से
एक कवि हो जाता हूँ।
नए अर्थों को पुनः जोड़कर
एक नई कहानी, कविता का
सृजन कर, उनके अर्थों में लीन हो जाता हूँ।
और कुछ इस तरह मैं एक कवि से
एक समीक्षक बन जाता हूँ।
कविता को कोरे कागज पर उतारकर
जिम्मेदारियों का वहन कर
अपना कर्तव्य निभाता हूँ।
कुछ इस तरह मैं ख़ुद से स्वतंत्र
होकर बेफ़िक्र सा हो जाता हूँ।