जले दीपक हो उजेला.
वेदना का घोर तम, पथ खोजता-
चल रहा राही अकेला.
छद्मवेशी नियति की प्रवन्चना.
उर-उदधि उर्मि पर लिख रही संवेदना.
मौन होकर समय-ग्रन्थ पढ रहा जीवन-
- कर रही श्वॉसें निरन्तर विवेचना.
सज रही नेपथ्य में नव नाटिका-
- खेल खेलेगी अ खेला.
श्वेत-श्याम परिखन शाश्वत चल रहा.
अन्तराग्नि में भावनान्कुर जल रहा.
नीर बन कर उमंग उन्मीलित नयन में--
- नित संयमित व्यथाद्रि अन्तः दल रहा.
आस-तरु ठूठा खडा वीरान में---
खो गयी तम में सुवेला.
नक्षत्र- शर श्य्या पर सोया भीष्म मन.
उठ घिर रहा-उर, क्षितिज विप्लवकारी घन.
हो पीडित अस्थिर आकुल आकांक्षा---
अभ्यन्तर में करती सतत मौन मन्थन.
पी रहा पावक विवस स्मर-चकोर---
- ऑवॉ हुआ उर- दहेला .