यह किताब रणभेरी गुंजाती ऐसी अस्मिताओं के नाम, जिन्होंने अपनी अंतश्चेतना के झरोखों से उन औरतों की तकलीफें देखी हैं, जो पितृसत्ता के किले में आज भी बंद हैं। कहने के लिए देश की आजादी की उर्द्धशतीमनाकर हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गए हैं !
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