आज मन कुछ कह रहा आज कुछ पल अपने लिए जिए |
समय की चादर पर यादों के बूटे सिए भूल कर चाय कॉफ़ी पीना समय का मीठा चनमृत पिए | आज कुछ पल----
रहने दू घर को यूही अस्त व्यस्त न सही करू चादर की सिलबट बिखरा रहने दू घर का समान खुली छोड़ दू सारी खिड़कियां ठहरे रहने दू खिड़की के परदे हवा को आने दू रौशनी भर जाने दू तरसु बूँद-बूँद टपकते पानी की आवाज़ सुनने के लिए | आज कुछ पल----
जाकर बैठ जाऊ किसी एकांत में बचपन की तरह हर बात को अनसुना करू आँखें बिछा दू दहलीज पे कि काश कोई आए डाकिया ही सही किसी का पत्र लाए पत्र ज़ोर-ज़ोर से पढू और घर भर को सुनाऊ कोई बचपन की सखी राह चलते मिल जाए जी भर के बातें करे खुश हो या रो लिए | आज कुछ पल----
चांदनी रात में छत पर चादर तान कर बादल की लुपछिप में चाँद को देखु, तारे गिनु, आते जाते जहाजों को देखु, झींगुर की आवाज़ सुनु, रेल गाडी की सीटी की आवाज़ से साए-साए का सन्नाटा टूटे, या फिर सूखा पत्ता पेड़ से झरे डर के मारे सिमट जाऊ, गले जा लागु अपनी माँ के, माँ का आँचल मुट्ठी से पकड़ के रख लू रात में चांदनी के फूलो को पेड़ो पर टके देखु, छोड़ दू मन को रात रानी, हर सिंघार की महक को सूंघने के लिए | आज कुछ पल----
भोर की प्रथम किरण संग न उठु सोती रहू देर तक दिन चढ़ आने तक पंछियों की कलरब शांत हो जाने तक | धूप के जी भर आँगन में फ़ैल जाने पर | अलसाए सी अधजगी सी पानी भरी बाल्टी ऊपर उड़ेल लू ओसारे में छिप जाऊ कोई बुलाए मै न बोलू होठो को रहू सीए | आज कुछ पल----
घनी दोपहर में बरनी से आचार चुरा कर खाऊ रहू रूठी मैं मनाने से भी न मानू सोन चिरैया गिलहरी से बाते करू अचानक आई बारिश में भीगूँ, कागज की नाव बनाऊ, दौड़ लगाऊ पानी में, कंकड़ फेकू ताल में, देर रात तक जागू टिटहरी की आवाज़ सुनने के लिए | आज कुछ पल----
पर यह अब न संभव है अब तो बस यह सपना है, सपना है जो आधी खुली आँख से देखा है मन बचपन जीना चाह रहा, पर जिम्मेदारियों में कहा जीना अपना अब तो सबके लिए जीना हर इच्छा को मन में दबाए जा रही हूँ जिए | आज कुछ पल----