कुछ तलाश में हूँ मै,
हाँ सच कुछ ढूंढ रहा हूँ वर्षों से,
क्या खो गया है मेरा?
पूरी क्यों नहीं हो रही ये खोज मेरी?
हाँ शायद मै अपनी ही तलाश मे हूँ,नहीं शायद नहीं पक्का मै खुद को ही ढूंढ रहा हूँ सदियों से, और पा नहीं रहा हूँ मैं खुद को ही! पर ठीक तो हूँ मैं पूरा का पूरा, खाता हूँ नहाता हूँ और कार्यालय भी जाता हूँ मै प्रतिदिन, तो फिर कैसे पता नहीं चल रहा है मुझे मेरा ही।
पर क्या इसीलिए हूँ मै नहाना-खाना और ऑफिस जाना और अपने बच्चों को पालने के लिए अपने बच्चों का पालन पोषण खुद के खाने का जुगाड़ तो जानवर भी कर रहे हैं, पर मै जानवर तो नही हूं ना।
इसमें ही कुछ अधूरापन है शायद, ऐसा तो हो नहीं सकता की मेरे जन्म के साथ सिर्फ मेरे माँ-बाप और रिश्तेदारों ने ही कुछ उम्मीद की हो मुझसे, इस समाज, पर्यावरण, धरती-आकाश, और इस ब्रम्हांड ने ज्यादा नहीं तो कम पर कुछ तो सोचा ही होगा मुझे लेकर, कुछ तो उम्मीदें की ही होंगी मुझसे भी?
प्रकृति ने इस ब्रम्हांड मे कुछ भी ऐसा नही बनाया है जो किसी काम का ना हो हर एक चीज की उपयोगिता है इस संसार मे, तो ये कैसे संभव है? कि प्रकृत्ति ने ये मौका मुझे सिर्फ खाने और नहाने के लिए दिया हो?
वही समझने के प्रयास मे पागल हूं मै पर क्यों समझ नही आता, हाँ ठीक है मै थोड़ा कम समझदार हूं पर हूं तो इसी ब्रम्हांड का हिस्सा और निश्चित ही मुझे ये समझना होगा मुझे! कम से कम प्रकृति की उन जरूरतों को जिसकी जिम्मेदारी सिर्फ मुझ पर है।
इस संसार का जीवित हिस्सा बनते ही ये समझ जाना चाहिए था हाँ ठीक है मै ब्रम्हांड को बदल नही सकता क्यों कि ब्रम्हांड को बदलना संभव नही है किसी के भी लिए सिर्फ समझा जा सकता है ब्रम्हांड को, जैसे Law of gravity उसे सिर्फ समझा ही है विज्ञान ने बदला तो नही उसे फिर मै क्या हूं पर समझना तो होगा मुझे भी वो सब हाँ वो सब जिसको समझने की जिम्मेदारी सिर्फ मुझ पर है।
हाँ भी बदलना नही चाहता हूं मै भी सिर्फ समझना ही चाहता हूँ पर क्यों समझ नही आता कुछ भी मुझे? हाँ कुछ भी।
क्या उतर रहा हूँ मै सबकी उम्मीदों पर खरा जिसने भी जो जो उम्मीदें की थी मुझसे सच कहूं तो नहीं बिलकुल नहीं।
टुकड़ो में क्यों जी रहा हूँ, क्यों खुद से जुदा सा लगता हूँ?
शख्श कोई है और भी मुझमे,क्यों उससे खफा मै रहता हूँ??