थी जो नन्ही कली , अब खिलने लगी है ;
नन्हे बच्चे की हंसी जैसे , फिर खिलने लगी है ;
इस कदर छाया है आफ़ताब मुझ पर ;
की आज फिर ज़िंदगी मुस्कुराने लगी है ।
की थी कोशिशे ;अब रंग लाने लगी हैं ;
थी जो इन्तिजा , साहिल पाने लगी है ;
इस कदर बरसा है , मशरूफ खुदा का नूर मुझ पर
की आज फिर ज़िंदगी मुस्कुराने लगी है |