अंतिम संस्कार का शास्त्रों में बहुत वर्णन दिया गया है क्योंकि इसी से व्यक्ति को परलोक में उत्तम स्थान और अगले जन्म में उत्तम कुल परिवार में जन्म और सुख प्राप्त होता है। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि जिस व्यक्ति का अंतिम संस्कार नहीं होता है उनकी आत्मा मृत्यु के बाद प्रेत बनकर भटकती है और तरह-तरह के कष्ट भोगती है। हिंदू धर्म में मृत्यु को जीवन का अंत नहीं माना गया है। मृत्यु होने पर यह माना जाता है कि यह वह समय है, जब आत्मा इस शरीर को छोड़कर पुनः किसी नये रूप में शरीर धारण करती है, या मोक्ष प्राप्ति की यात्रा आरंभ करती है । किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद मृत शरीर का दाह-संस्कार करने के पीछे यही कारण है। मृत शरीर से निकल कर आत्मा को मोक्ष के मार्ग पर गति प्रदान की जाती है। शास्त्रों में यह माना जाता है कि जब तक मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्रों के अनुसार किये जाने वाले सोलह संस्कारों में से अंतिम संस्कार दाह संस्कार है।
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यह संस्कार दो प्रकार से किया जाता है-
1. जब मृत शरीर उपलब्ध हो तो | उसका पूरी विधि विधान से अग्निदाह करना चाहिए|
2. जब किसी व्यक्ति की मृत्यु भूख से, हिंसक प्राणी के द्वारा, फांसी के फंदे, विष से, अग्नि से, आत्मघात से, गिरकर, रस्सी बंधन से, जल में रखने से, सर्प दंश से, बिजली से, लोहे से, शस्त्र से या विषैले कुत्ते के मुख स्पर्श से हुई हो तो इसे दुर्मरण कहा जाता है। इन सभी स्थितियों में मृत्यु को सामान्य नहीं माना जाता और मृत्यु पश्चात् दाह संस्कार के लिए पुतला दाह संस्कार विधि का प्रयोग किया जाता है।
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एक ,तीन ,चार ,सात नौ ग्यारहवे दिन का विधान का तो गरूडपुराण में वर्णन हैं किंतु शव विसर्जन की दाह प्रथा के अंतर्गत अस्थिसंचयन एवं उनके विसर्जन का विधान ॠग्वैदिक काल से ही मिलने लगता है किंतु उस में शव के दाहोपरांत अवशिष्ट अस्थियों का संचयन करके उन्हें भूमिसात् किये जाने के संक्षिप्त उल्लेख के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में अन्य कोई आनुष्ठानिक विवरण प्राप्त नहीं होता है। अस्थियां एकत्रित एवं सुरक्षित रखने के लिए साधारण मिट्टी से बना पात्र उत्तम होता है । सिरेमिक, कांच, चीनी मिट्टी (पोर्सेलीन)जैसे अन्य पदार्थों से बना अस्थी-कलश न लें । मिट्टी से बना कलश जल में विसर्जित करने पर पूर्णतः घुल जाता है और इस प्रकार वह जल को प्रदूषण मुक्त रखता है । इसमें पृथ्वीतत्त्व भी अधिक होता है । अस्थियों में भी पृथ्वीतत्त्व प्रमुखता से होता है । दोनों के एक ही पंचमहाभूत से बने होने से उनके स्पंदन एक दूसरे से टकराते नहीं । इसलिए मिट्टी से बना अस्थी-कलश अधिक लाभदायी है ।
पंचक में किसी की मृत्यु होने पर नक्षत्रों के अशुभ प्रभाव को कुछ उपायों से शांत किया जा सकता है। गरुड़ पुराण सहित कई धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि यदि पंचक में किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके साथ 4 अन्य मौत भी होती है। परंतु इसकी शांति के लिए गरुड़ पुराण में उपाय भी सुझाए गए हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार पंचक में शव का अंतिम संस्कार करने से पहले किसी योग्य विद्वान पंडित की सलाह अवश्य लेनी चाहिए। उनके कहे अनुसार शव के साथ आटे या कुश (सूखी घास) से बने पांच पुतले अर्थी पर रखना चाहिए और इन पांचों का भी शव की तरह पूर्ण विधि-विधान से अंतिम संस्कार करना चाहिए, तो पंचक दोष समाप्त हो जाता है। इसके आनुष्ठानिक विकास का अगला चरण हमें सूत्र ग्रंथों में देखने को मिलता है, विशेषतः बौधा.पितृ.सू. में।
तदनुसार अस्थिसंचयन का कार्य शवदाह के प्रथम, तीसरे, सातवें या नवें दिन किया जाना चाहिए। गरुड़ पुराण ( प्रेतखण्ड 5.15 ) इनके अतिरिक्त नवें दिन को भी मान्यता प्रदान करता है, पर द्विजों के लिए चौथा दिन श्रेष्ठ माना गया है। किंतु स्मृतिकार यम ( 87 ) प्रथम दिन से लेकर चौथे दिन तक अस्थिसंचयन के पक्ष में अपना मत प्रस्तुत करते हैं। चतुर्थ दिवस का समर्थन, विष्णु एवं कूर्म पुराण में तथा कौशिक सूत्र ( 82.29 ) में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त इनमें अस्थिसंचयन के क्रम तथा स्री- पुरुष के अस्थिसंचयन की प्रक्रिया का विवरण भी दिया गया है।
किंतु आश्व.गृ.सू. ( 45 ) के अनुसार यह कार्य तेरहवें या पंद्रहवें दिन किया जाना चाहिए। अस्थिसंचयन की प्रक्रिया के संदर्भ में बौधा.पितृ.सू. ( 1.14.6 ) तथा तैत्ति.गृ.सू. में जो विवरण दिया गया है। तदनुसार सर्वप्रथम चिता की अवशिष्ट भ पर दुग्ध मिश्रित जल का अभिसिंचन करके किसी दूधिया वृक्ष की डंडी से भ में दबे हुए अस्थि खण्डों को पृथक्- पृथक् करके उन्हें एक स्थान पर एकत्र कर लेना चाहिए तथा अवशिष्ट को पृथक् रुप से संग्रहीत करके दक्षिण दिशा में विसर्जित कर देना चाहिए।
इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि अस्थिसंचयन के समय बोले जाने वाले मंत्रों से आर्यों के उस विश्वास पर भी प्रकाश पड़ता है, जिसके अनुसार मृतक लोकांतर में पुनः नवीन शरीर को धारण करता है तथा उस शरीर के नव- निर्माण के लिए उसके शरीर के प्रत्येक अंग की अस्थियों को उसके लिए भेजा जाना आवश्यक होता है। उनकी इस धारणा की पुष्टि उच्चार्यमाण मंत्र के जिन शब्दों से होती है, वे इस प्रकार हैं :-
""( हे प्रेतात्मा !) यहाँ से उठो और नवीन स्वरुप धारण करो। अपनी देह के किसी भी अवयव को न छोड़ो, तुम जिस किसी भी लोक को जाना चाहो, जाओ। सविता तुम्हें वहाँ स्थापित करे। यह तुम्हारी एक अस्थि है, तुम ऐश्वर्य में तृतीय से युक्त होओ। सम्पूर्ण अस्थियों से युक्त होकर सुंदर बनो, तुम दिव्य लोक में देवों के प्रिय बनो।""
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ऐसे करें दाह संस्कार की विधि(तैयारी)---
हिंदू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात व्यक्ति स्वर्ग चला जाता है अथवा अपना शरीर त्याग कर दूसरे शरीर (योनि) में प्रवेश कर जाता है। मृत्यु के उपरांत होने वाली सर्वप्रथम क्रियाएं सर्वप्रथम यथासंभव मृतात्मा को गोमूत्र, गोबर तथा तीर्थ के जल से, कुश व गंगाजल से स्नान करा दें अथवा गीले वस्त्र से बदन पोंछकर शुद्ध कर दें। समयाभाव हो तो कुश के जल से धार दें। नई धोती या धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहना दें। तुलसी की जड़ की मिट्टी और इसके काष्ठ का चंदन घिसकर संपूर्ण शरीर में लगा दें। गोबर से लिपी भूमि पर जौ और काले तिल बिखेरकर कुशों को दक्षिणाग्र बिछाकर मरणासन्न को उŸार या पूर्व की ओर लिटा दें। घी का दीपक प्रज्वलित कर दें। मरणासन्न व्यक्ति को आकाशतल में, ऊपर के तल पर अथवा खाट आदि पर नहीं सुलाना चाहिए। अंतिम समय में पोलरहित नीचे की भूमि पर ही सुलाना चाहिए। मृतात्मा के हितैषियों को भूलकर भी रोना नहीं चाहिए क्योंकि इस अवसर पर रोना प्राणी को घोर यंत्रणा पहंुचाता है। रोने से कफ और आंसू निकलते हैं इन्हें उस मृतप्राणी को विवश होकर पीना पड़ता है, क्योंकि मरने के बाद उसकी स्वतंत्रता छिन जाती है। श्लेष्माश्रु बाधर्वेर्मुक्तं प्रेतो भुड्.क्ते यतोवशः। अतो न रोदितत्यं हि क्रिया कार्याः स्वशक्तितः।। (याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रा.1/11, ग. पु., प्रेतखण्ड 14/88) मृतात्मा के मुख में गंगाजल व तुलसीदल देना चाहिए। मुख में शालिग्राम का जल भी डालना चाहिए। मृतात्मा के कान, नाक आदि 7 छिद्रों में सोने के टुकड़े रखने चाहिए। इससे मृतात्मा को अन्य भटकती प्रेतात्माएं यातना नहीं देतीं। सोना न हो तो घृत की दो-दो बूंदें डालें। अंतिम समय में दस महादान, अष्ट महादान तथा पंचधेनु दान करना चाहिए। ये सब उपलब्ध न हों तो अपनी के शक्ति अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का उन वस्तुओं के निमिŸा संकल्प कर ब्राह्मण को दे दें। पंचधेनु मृतात्मा को अनेकानेक यातनाओं से भयमुक्त करती हैं। पंचधेनु निम्न हैं- ऋणधेनु: मृतात्मा ने किसी का उधार लिया हो और चुकाया न हो, उससे मुक्ति हेतु। पापापनोऽधेनु: सभी पापों के प्रायश्चितार्थ । उत्क्रांति धेनु: चार महापापों के निवारणार्थ। वैतरणी धेनु: वैतरणी नदी को पार करने हेतु। मोक्ष धेनु: सभी दोषों के निवारणार्थ व मोक्षार्थ। श्मशान ले जाते समय शव को शूद्र, सूतिका, रजस्वला के स्पर्श से बचाना चाहिए। (धर्म सिंधु- उŸारार्द्ध) यदि भूल से स्पर्श हो जाए तो कुश और जल से शुद्धि करनी चाहिए। श्राद्ध में दर्भ (कुश) का प्रयोग करने से अधूरा श्राद्ध भी पूर्ण माना जाता है और जीवात्मा की सद्गति निश्चत होती है, क्योंकि दर्भ व तिल भगवान के शरीर से उत्पन्न हुए हैं। ‘‘विष्णुर्देहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्विलास्तथा।। (गरुड़ पुराण, श्राद्ध प्रकाश) श्राद्ध में गोपी चंदन व गोरोचन की विशेष महिमा है। श्राद्ध में मात्र श्वेत पुष्पों का ही प्रयोग करना चाहिए, लाल पुष्पों का नहीं। ‘‘पुष्पाणी वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च’।। (ब्रह्माण्ड पुराण, श्राद्ध प्रकाश) श्राद्ध में कृष्ण तिल का प्रयोग करना चाहिए, क्यांेकि ये भगवान नृसिंह के पसीने से उत्पन्न हुए हैं जिससे प्रह्लाद के पिता को भी मुक्ति मिली थी। दर्भ नृसिंह भगवान की रुहों से उत्पन्न हुए थे। देव कार्य में यज्ञोपवीत सव्य (दायीं) हो, पितृ कार्य में अपसव्य (बायीं) हो और ऋषि-मुनियों के तर्पणादि में गले में माला की तरह हो।
श्राद्ध में गंगाजल व तुलसीदल का बार-बार प्रयोग करें। श्राद्ध में संस्कार हेतु बडे़ या छोटे पुत्र को (पिता हेतु बड़ा व माता हेतु छोटा) क्रिया पर बिठाया जाता है। मृतक का कोई पुत्र न हो, तो पुत्री, दामाद या फिर पत्नी भी क्रिया में बैठ सकती है। मृतक को उसके रिश्तेदार व सगे संबंधी सिर पर शीशम का तेल लगाकर पानी से नहलाते हैं। प्राण छोड़ते समय: पुत्रादि उत्तराधिकारी पुरुष गंगोदक छिड़कंे। प्राण निकल जाने पर वह अपनी गोद में मृतक को सिर रख उसके मुख, नथुने, दोनों आंखों और कानों में घी बूदें डाल, वस्त्र में ढंक, कुशाओं वाली भूमि पर तिलों को बिखेर कर उत्तर की ओर सिर करके लिटा दें। इस समय वह सब तीर्थों का ध्यान करता हुआ, मृतक को शुद्ध जल से स्नान करावे। फिर उस पर चंदन-गंध आदि का लेपन कर मुख में स्नान करावे। फिर उस पर चंदन-गंध आदि का लेपन कर मुख में पंचरत्न, गंगाजल, और तुलसी धरे तथा शुद्ध वस्त्र (कफन) में लपेट कर अर्थी पर रख भली भांति बांध दे। अर्थी को कन्धा देकर शमशान तक पहुचाया जाता है
तुलसीकाष्ठ से अग्निदाह करने से मृतक की पुनरावृत्ति नहीं होती। तुलसीकाष्ठ दग्धस्य न तस्य पुनरावृŸिाः। (स्कन्द पुराण, पुजाप्र) कर्ता को स्वयं कर्पूर अथवा घी की बŸाी से अग्नि तैयार करनी चाहिए, किसी अन्य से अग्नि नहीं लेनी चाहिए। दाह के समय सर्वप्रथम सिर की ओर अग्नि देनी चाहिए। शिरः स्थाने प्रदापयेत्। (वराह पुराण) शवदाह से पूर्व शव का सिरहाना उŸार अथवा पूर्व की ओर करने का विधान है। वतो नीत्वा श्मशानेषे स्थापयेदुŸारामुरवम्। (गरुड़ पुराण) कुंभ आदि राशि के 5 नक्षत्रों में मरण हुआ हो तो उसे पंचक मरण कहते हैं। नक्षत्रान्तरे मृतस्य पंचके दाहप्राप्तो। पुत्तलविधिः।। यदि मृत्यु पंचक के पूर्व हुइ हो और दाह पंचक में होना हो, तो पुतलों का विधान करें - ऐसा करने से शांति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत कहीं मृत्यु पंचक में हुई हो और दाह पंचक के बाद हुआ हो तो शांति कर्म करें। यदि मृत्यु भी पंचक मंे हुई हो और दाह भी पंचक में हो तो पुतल दाह तथा शांति दोनों कर्म करें।
प्रेत के कल्याण के लिए तिल के तेल का अखंड दीपक 10 दिन तक दक्षिणाभिमुख जलाना चाहिए |
मुख्य व्यक्ति (उसे कर्ता भी कहा जाता है) अर्थी को श्मशान में रखने के बाद शव-स्नान: दाह-कर्म का अधिकारी पुत्र स्नान करे और शुद्ध वस्त्र (धोती-अंगोछा आदि) धारण कर मृतक के समीप जाये। उसके तीन चक्कर लगाता है व पानी का घड़ा (जो कंधे पर रखा होता है) तोड़ दिया जाता है। घड़े का तोड़ना शरीर से प्राण के जाने का सूचक है। केवल पुरुष मृतक शरीर को चिता में रखते हैं। पुत्र (कर्ता) चिता के तीन चक्कर लगाकर चिता की लकड़ी पर घी डालते हुए लंबे डंडे से अग्नि देता है।
आधी चिता जलने के पश्चात् पुत्र मृतक के सिर को तीन प्रहार कर फोड़ता है। इस क्रिया को कपाल क्रिया कहा जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि पिता ने पुत्र को जन्म देकर जो ब्रह्मचर्य भंग किया था उसके ऋण से पुत्र ने उन्हें मुक्त कर दिया।
उसके बाद नदी के घाट दातुन गड़ा कर सभी शुद्ध होते है और मृत आत्मा की शांति के लिए उस गड़े हुंए दातुन में टिल और जौ के साथ पांच बार पानी देते है. फिर सभी घर लोट आते है
जहां मृतक को अंत समय रखा गया था वहां दीपक जलाकर उसकी तस्वीर रखकर शोक मनाया जाता है। मृत आत्मा के अच्छाई के बारे में बात चित करते है |
प्रथम दिन खरीदकर अथवा किसी निकट संबंधी से भोज्य सामग्री प्राप्त करके कुटुंब सहित भोजन करना चाहिए। ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिए। भूमि पर शयन करना चाहिए। किसी का स्पर्श नहीं करना चाहिए। सूर्यास्त से पूर्व एक समय भोजन बनाकर करना चाहिए। भोजन नमक रहित करना चाहिए। भोजन मिट्टी के पात्र अथवा पत्तल में करना चाहिए। पहले प्रेत के निमित्त भोजन घर से बाहर रखकर तब स्वयं भोजन करना चाहिए। किसी को न तो प्रणाम करें, न ही आशीर्वाद दें। देवताओं की पूजा न करें।
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इनका रखें विशेष ध्यान --
दुसरे दिन , तीसरे दिन या उसी दिन तत्काल चिता शांत कर दह कर्तादक्षिण की और मुह करके पूर्व विधि से पिंड दान करे ।
पिंड बनाने से जो अन्ना बचा हो उसे उसे श्मशान वासी देवो को बली प्रदान करे ।
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अस्थि संचय ----गायका दूध डाल कर अस्थियों को तर कर ले , मोन हो कर पलाश की दो लकडियो से अस्थिया अलग कर ले , सबसे पहिले सर की अस्थि से शुरू करे ओर अंत में पेर की अस्थि को चुने । ये सभी अस्थि कुश के उपर एक रेशम या तुस का कपडा बिछा क्र उस पर रखे । इनको सुगन्धित जल से तर कर उनमे थोड़ा सा स्वर्ण , मधु , घी , तिल डाल दे । फ़िर कपडे में बाँध कर मिटटी के बर्तन में रखे ।
घट फोदन -----इसके बाद चिता भस्म को जल में भा दे । चिता स्थली को साफ करे ।
इसके बाद एक व्यक्ति दाहकर्ता के कंधे पर एक घडा भर क्र रखे और आगे को जाते हुए चिता स्थान पर घडा गिरा दे फ़िर मुद कर न देखे और आगे चल दे । फ़िर सभी लोग स्नान करे मोन होकर । फ़िर स्नान के बाद तिल का दान दक्षिण की और मुख करके के ।
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तत्वोंपदेश ----इसके बाद सभी लोग एक जगह बैठे या रुके और बाते करे , मानव तन एक दिन नष्ट होने वाला है । यह प्रथ्वी , जल , आकाश , वायु , अग्नि के संयोग से बना है । तो एक दिन उसी पञ्च भुत में मी जाएगा । इस तन को पाने का सबसे बडा लाभ है की ये कर्म सुधार योनी है । इस से हम भगवान को प् सकते है ।
अगर आप गंगा किनारे है तो उसी दिन अस्थि विसर्जित कर दे अन्यथा घर के बहर किसी पेड़ पर अस्थि कलश लटका देना चाहिए और दस दिन के भीतर गंगा में विसर्जन करना चाहिए । दस दिन के भीतर अस्थि गंगा में विसार्जन करने पर प्राणी को गंगा घाट पर मरने का फल मिलता है ।
शमशान से लोटकर -----इसके बाद बच्चो को आगे करके सभी घर की और चले पीछे मुद कर न देखे । दरवाजे पर थोड़ा रुके फ़िर निम् की पत्ते चबाये , आचमन करे , । जल , गोबर , तेल मिर्च , पिली सरसों , और अग्नि का स्पर्श करे । फ़िर पतथर पर पैर रख कर घर में प्रवेश करे .फ़िर भगवान का चिंतन करे ।
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दह कर्ता के पालनीय नियम-- -----१ --पहले दिन किसी निकट सम्बन्धी , ( ससुराल या ननिहाल ) से भोजन प्राप्त करके कुटुंब सहित भोजन करना चाहिए । ये सुविधा न होने पर बाजार से खरीद क्र भोजन करे ।
२-- ब्रह्मचर्य का पालन करे ।
३-----भूमि शयन करे।
४ -----सूर्यास्त से पूर्व भोजन स्वय बना कर खाए या एक ही हाथ का खाए ।हो सके तो नमक रहित खाए और पत्तल में खाये । किसी को न छुए । और सबसे पहिले प्रेत के निमित भोजन का ग्रास निकल क्र घर के बहर रख दे फ़िर खाए ।
५------ प्रेत के लिए पिंड दान रोज करे ।
इन दिनों त्याग का जीवन बिताये ।
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कुटुम्बियों के लिए -----ब्रह्मचर्य का पालन करे, ।
----- मांस अदि न खाए , , शरीर तथा कपडो में साबुन न लगाये । , तेल न लगाये ।
----- मन्दिर में न जाए , पूजा न करे , देव मूर्ति का स्पर्श न करे , दान न दे न लें । किसी को प्रणाम न करे न आर्शीवाद दे । घर के देवी देवता की पूजा किसी कन्या से करा ले .
------ किसी घर न खाए न खिलाए।
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अस्थियां विसर्जित करने तक अस्थी-कलश कहां रखें ?
जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, संतों के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति की अस्थियां, सामान्यतया रज-तम युक्त होती हैं । इन्हें स्पर्श करने से हमारे रज-तम में वृद्धि होकर हमें कष्ट होने की आशंका रहती है । इसलिए अस्थियां एकत्र करने के उपरांत उसे तुरंत विसर्जित करना आवश्यक है । अस्थियां घर में लाने से भी मृत पूर्वज की सूक्ष्म-देह की आसक्ति बढती है और उसे मृत्योत्तर जीवन में शीघ्रता से आगे ले जाने की अपेक्षा भूलोक में ही बद्ध कर देती है ।
किसी कारणवश यदि अस्थि-विसर्जन तुरंत करना संभव न हो, तो बंद किया अस्थि-कलश घर के बाहर अथवा किसी वृक्ष पर लटकाकर रखना उचित होगा ।
३. अग्निसंस्कार के पश्चात अस्थी-कलश कितने समयतक रख सकते हैं ?
यदि अग्निसंस्कार चितापर किए गए हैं, तो सामान्यतया रक्षा तीसरे दिन इकट्ठा की जाती है; क्योंकि चिता के अंगारे पूर्णतः ठंडे होने में तीन दिन लगते हैं । यदि अग्निसंस्कार विद्युतदाहिनी (crematorium) में किया हो, तो रक्षा दूसरे ही दिन उपलब्ध हो जाती है । अग्निसंस्कार की पद्धति कोई भी हो, अस्थियों का विसर्जन तुरंत करने से रज-तम के नकारात्मक प्रभाव से बचा जा सकता है ।
कुछ प्रसंगों में जहां कोई संबंधी विदेश में होने के कारण अंतिम संस्कार में उपस्थित नहीं रह पाता, तो वह अस्थी-विसर्जन के कार्यक्रम में सम्मिलित होना चाहता है; परंतु यहां भी हमें शीघ्र विसर्जन करने से पूर्वज को मिलनेवाले आध्यात्मिक लाभ और उससे स्वयं को होनेवाले कष्ट से बचने के लाभ तथा संबंधियों के भावनात्मक तुष्टीकरण के बीच तुलना कर निर्णय करना चाहिए ।
४. आध्यात्मिक दृष्टि से अस्थी-कलश से अस्थियां विसर्जित करने की उचित पद्धति कौन सी है ?
४.१ अस्थियों का जल में विसर्जन
अग्निसंस्कार के उपरांत आध्यात्मिक दृष्टि से अवशेष निबटान का सर्वोत्तम उपाय अस्थियों का जल विसर्जन ही है । इसके निम्नलिखित कारण हैं :
१. अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) के लिए अस्थियों तथा सूक्ष्म-देह पर नियंत्रण कर उनका दुरुपयोग करना सरल होता है । विशेष रूप से अस्थियां भूमि पर एक साथ मिल जाएं, तो उनके लिए यह और भी सरल हो जाता है । जल में अस्थी-विसर्जन करने से अस्थियां जल में बिखर जाती हैं, जिससे नियंत्रण पाने के लिए अनिष्ट शक्तियों को वह एकत्रित रूप में नहीं मिल पाती ।
२. जल सर्वसमावेशक होता है अत: वह अस्थियों में विद्यमान मृतदेह के शेष स्पंदनों और सूक्ष्म देह से संबंधित पंचमहाभूतों, जैसे पृथ्वी, तेज, वायु आदि को अवशोषित करता है । इससे भूलोक में सूक्ष्म-देह की अपनी स्थूलदेह से बची आसक्ति समाप्त हो जाती है । परिणामस्वरूप सूक्ष्म-देह के भूलोक में अटके रहने और उस पर अनिष्ट शक्तियों द्वारा आक्रमण किए जाने की आशंका बहुत ही क्षीण हो जाती है ।
३. व्यक्ति के स्वभावदोषों (पापकर्मों)के कारण अस्थियों में रज-तम स्पंदन बढते हैं । मृतक की अस्थियां जल में विसर्जित करने से पापकर्म, अर्थात उनसे संबंधित रज-तम के स्पंदन जल में धुल जाते हैं ।
४. समुद्र-जल अस्थियोंके निबटान का हेतु उत्तम माध्यम है; क्योंकि अन्य सभी प्रकार के जल की अपेक्षा समुद्र के जल में सर्वसमावेशकता सर्वाधिक होती है । अन्य प्रकारों में पवित्र नदियों का जल सर्वोत्तम है । पवित्र नदियां, वे नदियां हैं जिनके जल में सत्त्वगुण की मात्रा अत्यधिक होती है; उदा. भारत की गंगा जैसी नदियां जिनका जल अत्यधिक प्रदूषित होने के उपरांत भी सर्वाधिक सात्त्विक है । सामान्यत: बहता जल सर्वोत्तम है; क्योंकि वह अस्थियों को इस प्रकार से बिखेर देता है कि अनिष्ट शक्तियों के लिए रक्षा अस्थियों के माध्यम से सूक्ष्म-देह पर नियंत्रण प्राप्त कर पाना असंभव सा हो जाता है ।
४.१.१ रक्षा समुद्र में विसर्जित करने के उपरांत कलश का क्या करें ?
कलश में अस्थियां एकत्रित की जाती हैं, इसलिए कलश भी अस्थियों के स्पंदनों से आवेशित हो जाता है । अस्थी-कलश रखने अथवा आगे उसका उपयोग करने से कष्ट होने की संभावना बढती है; क्योंकि ऊपर स्पष्ट किए अनुसार अधिकांश लोगों की अस्थियां कष्टदायक होती हैं । अतः अस्थियों के साथ कलश का भी विसर्जन करना सर्वोत्तम है ।
४.२ अस्थियां गाडना (दफनाना)
कुछ सभ्यताओं में अनिसंस्कार के उपरांत अस्थियों को पात्र सहित गाड दिया जाता है (दफना दिया जाता है) । उनका यह भी कहना है कि देह ईश्वर का मंदिर है और इसलिए अग्निसंस्कारों की अपेक्षा इसे गाडना (दफनाना)चाहिए ।
जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, अस्थियों को एक पात्र में गाडने-से वह अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.)के लिए एक सहज लक्ष्य बन जाती है और उनके लिए मृत पूर्वज की सूक्ष्म-देह पर नियंत्रण करना और भी सरल हो जाता है । आध्यात्मिक स्तर पर अस्थियों का सूक्ष्मदेह पर होनेवाला दुष्परिणाम शव को गाडने के समान ही होता है, बस उनकी प्रबलता थोडी कम होती है । मृतदेह अथवा अस्थियों को गाडना (दफनाना)एक अत्यंत अनुचित कृत्य है । शताब्दियों से की गई शव और अस्थियों को गाडने की इन विधियों और आनेवाली शताब्दियों में की जानेवाली विधियों की संख्या का विचार करने पर यह स्पष्ट है कि इन अनुचित कृत्यों के माध्यम से उत्पन्न सूक्ष्म रज-तमात्मक स्पंदनों की वृद्धि का सामना सभी को करना पडेगा । जब-जब पृथ्वी के कुल रज-तम में वृद्धि होती है तो प्राकृतिक आपदाएं, युद्ध, आतंकवाद, सामाजिक असंतोष आदि में वृद्धि होती है ।
४.३ आभूषणों में अस्थियां रखना
कुछ लोग बाल के गुच्छे, सूखे हुए अंन्त्येष्टि में प्रयुक्त पुष्प, अस्थियां आदि पदक (लॉकेट), कर्णफूल, कंगन इत्यादि में रखकर अंत्येष्टी अवशेष आभूषण (क्रीमेशन ज्वेलरी) बनाते हैं । ऐसा करनेसे हम पूर्वजों को निम्न प्रकार की हानि पहुंचाते हैं :
सांसारिक आसक्ति बढने से मरणोत्तर जीवन में उनके आगे की यात्रा में बाधा आती है, जिससे वे भूलोक में बद्ध हो जाते हैं । अस्थियों को धारण करने से मृत पूर्वज की सूक्ष्म-देह में अपने वंशज तथा अपने पूर्वजीवन से उच्च स्तरीय आसक्ति निर्मित हो जाती है ।
अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की आशंका बढती है ।
अंत्येष्टी अवशेष आभूषण (क्रीमेशन ज्वेलरी) लिए भी हानिकारक है क्योंकि :
हम अपने आप को अस्थियों में विद्यमान रज-तम के घनिष्ठ सान्निध्य में दीर्घकाल के लिए असुरक्षित छोड देते हैं ।
ऐसा करने से हम पूर्वज की सूक्ष्म-देह के साथ-साथ, अस्थियों के माध्यम से उसपर नियंत्रण प्राप्त करनेवाली अनिष्ट शक्तिके आक्रमणों तीव्र की आशंका से स्वयं को असुरक्षित रखते हैं ।
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पांच नक्षत्रों के समूह को पंचक कहते हैं। वैदिक ज्योतिष के अनुसार राशिचक्र में 360 अंक एवं 27 नक्षत्र होते हैं। इस प्रकार एक नक्षत्र का मान (360-27) 13 अंक एवं 20 कला या 800 कला का होता है। 27 नक्षत्रों में अंतिम पांच नक्षत्रों अर्थात धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, एवं रेवती को पंचक कहते हैं। चन्द्रमा अपनी मध्यम गति से 27 दिनों में इन सभी नक्षत्रों का भोग कर लेता है। अत: हर महीने में लगभग 27 दिनों के अन्तराल पर पंचक नक्षत्र आते रहते हैं।
मुहूर्त शास्त्र के आचार्यों ने नक्षत्रों के शुभ एवं अशुभ फल का निर्णय करने के लिए इनको ध्रुव आदि 7 वर्गो में बांटा है। मुहूर्त चिन्तामणि के प्रणेता रामदैवज्ञ के अनुसार दी गई नक्षत्रों की ध्रुव संज्ञाएं तालिका में दी गई हैं। नक्षत्रों के इस वर्गीकरण के आधार पर ध्रुव, चर, मिश्र, क्षिप्र एवं मृदु-ये पांच वर्गो के नक्षत्र शुभ तथा उग्र एवं तीक्ष्ण वर्ग के नक्षत्र अशुभ माने गये हैं। पंचक के इन पांच नक्षत्रों में से धनिष्ठा एवं शतभिषा चर संज्ञक, पूर्वाभाद्रपद, उग्र संज्ञक, उत्तरा-भाद्रपद ध्रुव संज्ञक तथा रेवती नक्षत्र मृदु संज्ञक नक्षत्र होता है।
पंचक के दिनों में मृत व्यक्ति का दाह संस्कार, लकड़ी का फर्नीचर, दक्षिण दिशा की यात्रा, झोपड़ी बनाना, चारपाई बुनना आदि काम नहीं किये जाते। पर किसी कारणवश इन कार्यो को करना पड़ता है तो नक्षत्र स्थिति के अनुसार पंचक दोष निवारण उपाय बताए गए हैं।
यदि पंचक काल में कार्य करना जरूरी है तो धनिष्ठा नक्षत्र के अंत की, शतभिषा नक्षत्र के मध्य की, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के आदि की, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र की पांच घड़ी के समय को छोड़कर शेष समय में कार्य किए जा सकते हैं। रेवती नक्षत्र का पूरा समय अशुभ माना जाता है। पंचक में मृत्यु होने पर शव पर पांच पुतले रखे जाते हैं और पंचक दोषों का शांति विधान किया जाता है।
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ध्यान रखें --
चर नक्षत्रों में पर्यटन, मनोरंजन, मार्केटिंग एवं वस्त्रभूषण खरीदना शुरू होता है। ध्रुव संज्ञक नक्षत्र में शिलान्यास, योगाभ्यास एवं दीर्घकालीन योजनाओं का प्रारम्भ किया जाता है। मृदु संज्ञक नक्षत्र में गीत, संगीत, अभिनय, टी.वी. सीरियल का निर्माण एवं फैशन शो आयोजित किये जा सकते हैं, जबकि उग्र संज्ञक नक्षत्र में वाद-विवाद और मुकदमे संबंधी काम किये जाते हैं। इस तरह पंचक नक्षत्रों में सभी कार्य निषिद्ध नहीं होते। पंचक काल में विवाह, उपनयन, मुण्डन आदि संस्कार और गृह-निर्माण व गृहप्रवेश के साथ-साथ व्यावसायिक एवं आर्थिक गतिविधियां संपन्न की जा सकती हैं।