क्या ये वही आसमान है?
जिससे मेरी इतनी पुरानी पहचान है |
एकदम निस्तब्ध,
न कोई हरकत,
न कोई शब्द;
उत्तर के आसमान पर,
कोहरे की झीनी परत का परिधान,
रोज़-ब-रोज़
वही डरा सा आसमान |
उधर पूरब का सूरज है
की, बादलों की ढुलाई में दुबककर,
जागने का नाम ही नहीं लेता,
इधर दिशाएं हैं,
कि हाथ पसारे खड़ी हैं |
तुम्हारी एक किरण,
मात्र एक किरण पर,
उनकी नज़रें अड़ी हैं |
किन्तु नहीं,
'प्रभाकर' तुमने निज नाम
की गरिमा को सार्थक नहीं किया
इसलिए रोज़ ही सुबह ने
'शाम' का आलिंगन किया