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महान गणराज्य गढ़मण्डला पुस्तक की समीक्षा- उद्भव मिश्र

17 सितम्बर 2022

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  किताब-महान गणराज्य मण्डला लेखक-डा.आर.अचल पुलस्तेय ,मूल्य-500 रू पेपर बैक प्रकाशक-नम्या प्रेस 213 वर्धन
हाउस 7/28, अंसारी
रोड,दरियागंज,दिल्ली जातियों के उत्थान पतन काइतिहास ही दुनियां का इतिहास है ।एक राज्य के दूसरे राज्य पर विजय के साथ हीपराजित राज्य के नागरिकों की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक हैसियत बदलते देखा जासकता है । कभी सुख समृद्धि पूर्ण वैभव शाली जीवन व्यतीत करने वाली गोंड जाति जिसने सतपुड़ा की पहाड़ियों से लेकर मैदानी क्षेत्र तक वृहत्तर गोंडवाना राज्य की स्थापना किया था, आज उसकी
पहचान एक जनजाति के रूप में रह गयी है । डाक्टर आर.अचल पुलस्तेय ने गोंड जति के
गौरवशाली इतिहास को महान गणराज्य गढ़ मण्डला जैसी कृति के माध्यम से विस्मृति के
गर्त से बाहर लाने का प्रयास किया है । पुस्तक “महान गणराज्य गढ़मंडला” का ऐतिहासिक
विवेचन करने के साथ ही एक आदर्श राज व्यवस्था पर भी प्रकाश डालती है,जिसमें मनुष्य
के जीवन में राज्य का हस्तक्षेप अत्यल्प होता है। साथ ही लेखक ने भारत के संघात्मक
गणतंत्र के इतिहास पर भी व्यापक प्रकाश डालने का काम किया हैं, जिसकी जड़ें आदिवासी गोंड राज्य में देखी जा
सकती हैं । लेखक के शब्दों में " लगभग 1000 वर्ष पुराने गढ़ा राज्य को वृहद् गोंडवाना गणतंत्र के
रूप में स्थापित कर मध्य भारत को सुदृढ़ शासन व्यवस्था देने वाले गोंड नृवंश आज के
लोकतांत्रिक भारत में मुख्य धारा से किनारे अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के रूप
में दर्ज है,जो रोजी रोटी के लिये पूरे
भारत में बिखरा हुआ है । आज का जबलपुर जिसकी पहचान आदिम काल में
दंडकारण्य के भाग के रूप में रही है वहीं प्राचीन ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में एक
पहाड़ी पर मदन महल स्थित है,जिसे लगभग 12वीं शताब्दी में आदिवासी गोंड़
राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया था। इसके ठीक पश्चिम में गढ़ा है
जहाँ मदन सिंह के वंशज संग्राम सिंह के किले का खंडहर है।अब इसे गढ़ा बाज़ार के रूप
में जाना जाता है ।   ऐतिहासिक शब्दावली में शासकीय तंत्र और सेना
सहित राजा के निवास को गढ़ कहा जाता है।परंतु गढ़ा शब्द गोंड आदिवासी साम्राज्य की
नींव है।इसे इतिहास में गढ़कटंगा,गढ़ापुरवा,गढ़कनौजा कहा गया है । गोंड सत्ता के पराभव के बाद1781 ई. में मराठों ने जबलपुर को बसाया था।उस समय यहाँ
अंतिम गोंड़ राजा नरहरि साह का शासन था ,जिसे पेशवाओं ने अपदस्थ कर गढ़ामंडला राज्य पर कब्जा कर लिया।वर्तमान समय
में मण्डला एक जिला के रूप में है,जो जबलपुर के दक्षिण पूर्व में सतपुड़ा की
पहाड़ियों में स्थित है । ड.पुलस्तेय के अनुसार दुनियाभर के आदिवासी शासकों की शासन प्रणाली मौलिक रूप सेगणतांत्रिक रही है ।गढ़मंडला को भी साम्राज्य के बजाय 52 गढ़ों का संघीय गणराज्य कहा जा सकता है।लोक श्रुतियों के अनुसार धानुसाह
उर्फ नागदेव गढ़ा के पहले गढ़पति थे,जो धार्मिक आस्था पूर्ण राजनैतिक नायक थे।।उन्होने अपनी पुत्री का विवाह जादावराय सेकरके गढ़ा उत्तराधिकार में दिया था।इन्ही के 48वीं पीढ़ी में संग्राम साह नेविकट परिस्थितियों में सिंहासन प्राप्त कर गढ़ामण्डला गोंडवाना संघीय गणराज्यस्थापित किया,जिसका संचालन मण्डला से किया जाता था । गोंड राजवंश
के शासन काल पंडित रूप नाथ झा के अनुसार 158
ई. से 1781 ई. तक रहा है।इसके अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भिन्न मत व्यक्त किया है।
अन्तिम राजा नरहरि साह से सन 1786ई. में गढ़ा राज्य का अंत होता
है। इसके पश्चात अंग्रेजों द्वारा इस राजवंश के शंकर साह को पेंशन देने का उल्लेख
मिलता है।जिनको प्रथम स्वंतंत्रता संग्राम में ब्रिटीश हुकूमत के ख़िलाफ़ साजिश करने
का आरोप लगाकर पुत्र रघुनाथ साह के साथ मौत की सजा सुनाकर तोप से उड़ा दिया गया। तथ्यों काऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए डाक्टर अचल इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि परमार,चंदेल और कलचुरी शासनकाल में जंगलों,पहाड़ों पर स्वतंत्र गोंड आदिवासी राज्य
अस्तित्व में थे । सांस्कृतिक संरक्षण की प्रतिबद्धता, प्राकृतिक जीवन शैली व संयम के कारण राज्यविस्तार की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। गोंडों काचर्मोत्कर्ष काल 1480 ई से1564 ई तक संग्राम साहऔर दुर्गावती का शासनकाल है । पुस्तक में गोंड साम्राज्य के इतिहास को चार कालखण्डों में विभाजित कर अध्ययन किया गया है । प्रथम कालखण्ड(327 -ई से1116ई) स्थापना काल है,जिसमें संस्थापक राजा धानुसाह उर्फ नागदेव
तथा उनकी पुत्री रत्नावली के पति जादवराय और उनके वंशजो के शासन काल का क्रमिक
वर्णन किया गया है । द्वितीयकालखण्ड उत्थान काल है। इस कालखण्ड में मदन सिंह सन 1116ई से लेकर अर्जुन सिंह 1448ई.तक के कुल14 राजाओं का 364 वर्ष का शासनकाल आता है ।यह गोंड राजवंश का महत्वपूर्ण कालखण्ड है ।इस
कालखण्ड के प्रथम राजा मदन सिंह का किला पुरातात्विक साक्ष्य है । इसके आगे के
वंशजों क्रमशः राजसिंह, दादी राय, गोरखदास व अर्जुन सिंह का उल्लेख अबुल फ़ज़ल ने भी किया है । तीसराकालखण्ड1480ई. से1564ई. तक गोंड़साम्राज्य (गणराज्य) का पराक्रम काल है ।83 वर्ष का यह कालखण्ड गढ़मंडला का प्रत्यक्ष स्वर्ण काल है, जो महाराजा संग्राम साह1480 ई. पुत्र दलपति साह, पौत्र वीरनारायण तथा पुत्रवधु रानी दुर्गावती 1564 ई. तक है ।यही कालखण्ड इस आदिवासी गोंड राजवंश को मुख्य धारा के इतिहास में
शामिल करता है ।जिसके कारण1400 वर्षों के आदिवासी गोंड़ राजवंश के इतिहास दुनिया के सामने आता है।भ्रमवश बहुत से अध्ययन कर्ता महाराज संग्राम साह को ही राजवंश का
संस्थापक मान लेते हैं। इस कालखण्ड में पहाड़ी जंगलों से निकल कर राज्य का विस्तार
समूचे मध्य भारत ही नहीं उत्तर से दक्षिण तक फैल जाता है । चतुर्थ
कालखण्ड इस साम्राज्य का पराभवकाल है,जो गोंड़ राज्य के अध्येता स्लीमैन के अनुसार 217 वर्षों का है,परंतु ब्रिटिश शासन में राजाओं को मिलने वाली पेंशन के आधार
पर शंकर साह को भी इस राजवंश के अंतिम राजा माना जा सकता है।तब यह कालखण्ड293 वर्ष का हो जाता है । यह गढ़मंडला राज्य का पराभव काल है,जो रानी दुर्गावती के बलिदान के बाद महाराजा संग्राम साह के छोटे पुत्र चंद्र साह से शुरू होता है ।यह मुग़ल साम्राज्य की अधीनता से शुरू होकर मराठों व अंग्रेज़ों की अधीनता से 18 सितंबर1857 को ख़त्म होता है। जब शंकर साह व पुत्र रघुनाथ साह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी आहुति दे देते हैं । इसके साथ ही गोंड राजवंश के प्रताप व गौरवमयी स्वतंत्र स्वभाव की जाति का भविष्य अंधकार के गर्त में समा जाता है । 1857 में मात्र 3 दिन मुकदमे
में सुनवाई के बाद पिता पुत्र को मौत की सजा सुना दी गयी। एक अंग्रेज अफ़सर चार्ल्स
वाल ने द हिस्ट्री ऑफ इण्डियन म्युटिनी में लिखा है कि वे बहादुर योद्धा तेजमयचेहरे के साथ स्वयं गर्वभाव से चलकर तोपों के सामने आये। जनता को भयाक्रान्त करने के लिये अंग्रेजी सैनिकों के नियंत्रण में जनता की भीड़ के समक्ष यह सजा दी गयी ।राजा अपने 32 वर्षीय पुत्र के साथ सीना ताने तोप के सामने खड़े थे,जनता जयकार कर रही थी।ब्रिटिश सिपाहियों के पसीने छूट रहे थे।डिप्टी कमिश्नर के आदेश पर तोपें गरज उठीं ।राजा शंकर साह और कुँवर रघुनाथ साह ने देश व जनता के लिये स्वयं को बलिदान कर दिया ।शरीर आग के गोले से क्षत विक्षत होकर मैदान में बिखर गया,परंतु दोनों योद्धाओं के सिर दूर छिटक पीड़ा
रहित शान्त भाव से पड़े हुये थे ,जैसे कह रहे हों-स्वाभिमान व देश के लिये दिया गया बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा । गढ़ मण्डला के शासन व्यवस्थापर प्रकाश डालते हुये डाक्टर अचल कहते हैं-गढ़ मण्डला की शासन व्यवस्था ब्रिटिश शासन व्यवस्था से भी सरल थी । यहाँ कुछ लिखित नहीं था, पूरा शासनतंत्र मान्यताओं और विश्वास पर आधारित था । किसी प्रकार का हस्तक्षेप या अनावश्यक नियंत्रण भी नहीं था।राजा व प्रजा के मध्य एक अपनापन कारिश्ता था । इसके मूल में आदिवासी समुदाय की मूल प्रवृत्ति है जो प्रकृति के साथजीने में विश्वास करती है ।प्रकृति के विध्वंस की शर्त पर विकास की अवधारणा से दूररही है। संपत्ति संग्रह, जाति, वर्ण,धर्म और लिंग भेद की प्रवृत्ति से दूर रही है ।इसलिये आदिवासी समाज में आर्थिक ,सामाजिक व्यभिचार, भ्रष्टाचार आदि के लिये कोई स्थान नहींथा।सामाजिक संरचना खुली और सामूहिक थी ।ये विशेषताएं राजा और प्रजा सभी में थीं इसके विपरीत ,स्पर्धा, आक्रमण, संक्रमण को आत्मसात करने वाले लोग स्वयं को सभ्य मानकर इन्हें असभ्य घोषितकरते हुये बार-बार मुख्य धारा में लाने की साजिश पूर्ण घोषणा करते हैं,जो यह भूल जाते हैं कि जिसे असभ्य कह रहे हैं,उनके पास प्रकृति के साहचर्य में जीने की एकमहा। न सभ्यता है । लेखक का मानना है कि देश की लोकतांत्रिक शासन सत्ता में भागीदारीदेने के बजाय सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के बहाने सदियों से संरक्षित अकूत प्राकृतिक सम्पदा पर कब्जा करते हुये लोकतंत्र से अलग थलग कर दिया गया जो क्रम आज भी जारी है.लेखक विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों से सिद्ध करते हैं गोंड द्रविड़ मानव वंश के अविच्छिन्न  अंग हैं, जिनका मूल निवास मध्य भारत में गोदावरी औरनर्मदा के बीच फैले हुये विंध्य सतपुड़ा के पहाड़ी जंगल रहे हैं। जहाँ से विभिन्नकालखण्डों में विस्थापन और पलायन पूरे देश भर में होता रहा है। लेखक ने महत्वपूर्ण पृष्ठोंपर संदर्भ देकर शोधार्थियों व पाठको को प्रमाणिकता के लिए आश्वस्त किया है,अंतिम

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पृष्ठो पर 66 ग्रंथों,पुस्तको,पत्र-पत्रिकाओं का संदर्भ व चित्र देकर पुस्तक को
शोधग्रंथ की श्रेणी में ला दिया है,इस तरह यह पुस्तक इतिहास को अंधेरे कोनो में
राशनी की तरह है। निश्चय ही यह गोंड़ जनजाति को अतीत की गौरवशाली परम्परा और इतिहास से जोड़ने में सफल होने के साथ इतिहास के शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण बन गयी है।  

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रचनाएँ
कोरोना काल कथा -स्वर्ग में सेमीनार
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दहकते दिनों की दारुण दास्तान : कोरोना काल कथा-स्वर्ग में सेमिनार- उद्भव मिश्रा ‘कोरोना काल कथा स्वर्ग में सेमिनार’ दिवंगत विभूतियों के माध्यम से दर्शन, कला और विज्ञान के अनुशासनों के माध्यम से लेखक ने कोरोना काल की विसंगतियों और विडम्बनाओं का जीवंत दस्तावेज़ पेश किया है जो निश्चय ही पाठक के भीतर एक समझ पैदा करने में सहायक हो सकता है । ‘किसी आपद व्यापद का कारण मनुष्य ही होता है। यह मनुष्य ही नहीं प्रत्येक पदार्थ के साथ होता है, जैसे स्वर्ण की चमक ही उसका संकट है।पुष्प की मधुर मादक गंध ही उसके अस्तित्व के लिये अन्त कारक है। इस प्रकार मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य के लिए संकट बन चुकी है ।एक परमाणु की शक्ति के ज्ञान ने सत्ताप्रिय मनुष्य को आत्मध्वंसक बना दिया है।‚ कथाकार अचल पुलस्तेय कवि और लेखक ही नहीं एक चिकित्सक भी हैं।सामाजिक विज्ञानों के गहन अध्येता होने के साथ-साथ प्राकृतिक विज्ञानों पर भी समान अधिकार रखते हैं प्रकृति और वनस्पतियों से रचनाकार पुलस्तेय का गहरा नाता है।जिसे प्रस्तुत काल कथा में देखा जा सकता है- ‘पितामह पुलत्स्य के आदेश पर अर्काचार्य रावण ने कहा-हे लोक चिंतक मनीषियों प्रस्तुत मधुश्रेया पेय के निर्माण का मुख्य घटक मधुयष्टि (मुलेठी) है।जो दिव्य मेध्य रसायन है।यह मधुर, शीतल, स्नेहक बलकारक, कफनाशक, स्वप्नदोषनाशक, शोथनाशक, ब्रणरोधक है।‚ अपने आस पास घटित होने वाली परिघटनाओं पर वैज्ञानिक विमर्श रचनाकार के मन का शगल है। कोरोना काल में जब सारी दुनिया थम सी गई थी,ताले में बंद थी तब अचल पुलस्तेय की लेखनी अपने दारुण समय का चित्रांकन कर रही थी,उन्हीं के शब्दों में ‘ऐसे काल का इतिहास दो तरह से लिखा जाता है जिसे इतिहास कहते हैं वह वास्तव में घटनाओं का संवेदनहीन संकलन होता है,जिसका केंद्र सत्ता की विजय गाथा होती है परंतु विकट काल का वास्तविक इतिहास कथाओं और कविताओं में होता है।‚ कोरोना का काल कथा स्वर्ग में सेमिनार ऐसे ही इतिहास कथा है जिसके केंद्र में राज सत्ता नहीं घरों में बंद आदमी है,उसकी पीड़ा है और समाधान भी।ऐसी कथा है जिसमें अप्रवासी मजदूरों को लॉकडाउन के समय में भूखे प्यासे सड़क पर पुलिस की लाठी खाते,पैदल घर की ओर प्रस्थान करते देखा जा सकता है ।
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आयुर्वेद के इतिहास में महिला चिकित्सक

17 सितम्बर 2022
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 *(लेखक आयुर्वेद चिकित्सक, वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस आयोजन समिति के सदस्य, स्वतंत्र विचारक,लेखक,एवं ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के संपादक हैं)  भारत के स्वास्थ्य व्यवस्था कुल मान्य सात चिकित्सा पद

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विश्वकर्मा जयंती और हम

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पौराणिक वास्तुकार अभियंत्रक विश्वकर्मा जयंती शुभमंगलम् । **** मनुष्य की यह स्वभाविक मनोवृत्ति है कि जब वर्तमान में हताश होता है तो अतीत संबल लेने की कोशिश करता है या भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न बुनता

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