कालचक्र को कौन रोक सका है, वह तो अपनी नियत गति से गतिमान है। कई बसन्त बीत चुके हैं। अपनी मधुर स्मृतियों के झरोखे में से उस पार देखूं तो लगता है अभी कल की ही बात है। बात उन दिनों की है कि जब मैंने शिक्षा के रूप में एम.ए. हिन्दी के बाद पीएच. डी. तक शिक्षा पायी थी। मेरी उच्च शिक्षा पूर्ण होते ही मां को यही चिन्ता रहती थी कि किसी तरह इसके हाथ पीले कर दूं। पता नहीं इतना पढ़ा-लिखा लड़का मिलेगा भी या नहीं। मां की चिन्ता दूर करने के लिए परिवार का प्रत्येक सदस्य मेरे विवाह को लेकर सक्रिय था। मेरे लिए लड़कों की खोज बहुत जोर-शोर से चल रही थी। इस प्रसंग में मेरे विवाह का विज्ञापन भी समाचार पत्र अमरउजाला में प्रकाशित करा दिया गया था।
मां की ममता को कौन भुला सका है, शायद कोई नहीं। मां की ममता अनमोल है, उसका प्रेममयी जादुई स्पर्श क्षण भर में सारे तनाव को दूर कर देता है। पूरे घर में मां की ममतामयी छवि इधर-उधर डोलती रहती है, सभी को अपने निर्देश देती हुई कि ये कर लो, वो कर लो, ये भूल मत जाना। मानों सारे कामों का उत्तरदायित्व उसी का है, उसी को सारे जहां की चिन्ता है।
एक दिन मुझसे बोली-'विज्ञापन के प्रत्युत्तर में इतने सारे पत्र आए हुए हैं, उन पर नजर तो डालकर देख ले किस-किसको जवाब देना है।'
मां की बात सुनकर मैं बोली-'मां, देख लूंगी। इतनी भी क्या जल्दी है?'
'तेरे को जल्दी नहीं, पर मुझे है। तुझे पता नहीं है, लड़कियां यूं पलक झपकते ही बड़ी हो जाती हैं।' मां की ममता से ओतप्रोत झिड़की भरा निर्देश मुझे यूं ही मिल गया था।
मैंने मां की झिड़की को गम्भीरता से लिया और विज्ञापन के प्रत्त्युतर में आए लगभग दो सौ बॉयोडेटा को पढ़ने लगी।
सारे बॉयोडेटा देखने के बाद मुझे एक ही सही लगा। उस बॉयोडेटा पर 13 अगस्त 88 दिनांक अंकित थी। मैंने इसे क्यों चयन किया, इसके उत्तर में मेरे मन ने ही मुझसे कहा-इस लड़के की शिक्षा तेरे समकक्ष है और रुचियां भी तेरे अनुरूप। लड़का बी.एससी.,एम.ए. हिन्दी से करके पीएच.डी. तक उच्च शिक्षा ले रखी थी। वर्तमान में किसी कम्पनी में कैमिस्ट के पद पर कार्यरत था। इसके अतिरिक्त लेखन का कार्य् भी करता था। आठ पुस्तकें प्रकाशित भी हो चुकीं थीं।
मैंने अपनी बहन के साथ जाकर एक फोटो खिंचवायी और उस बॉयोडेटा का प्रत्त्युतर पिता की ओर से लिखकर अपने छायाचित्र सहित 20 अगस्त 1988 को भेज दिया।
मुझे मेरे पत्र का उत्तर 27अगस्त88 तक मिल गया था जिसमें लड़के वालों के माता-पिता की ओर से लड़के को देखने का निमन्त्रण था।
मेरे माता-पिता लड़के को देखने 4सितम्बर88 को मेरठ गए। वापिस लौटकर उन्होंने लड़के और उसके परिवार की प्रशंसा की तो मेरे मन ने मुझसे कहा-शायद तरे भाग्य ने यही संजोग तेरे लिए लिखा है। माता-पिता ने तो हां की मोहर लगा दी थी। यह जानकर मन प्रसन्न भी हुआ और उस प्रसन्नता के साथ घर छोड़कर अपरिचित शहर में अपरिचित लोगों के मध्य जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ करने का भय भी लगा-लिपटा था। फिर मन में एक आशंका की बिजली कौंधी कि माता-पिता ने तो हां कर दी है, परन्तु लड़के वालों ने तुझे देखकर ना कर दी तो। अन्त: से किसी ने यूं ही झिड़का-क्यों सपने देख रही है? पहले लड़के वालों को आकर देख तो लेने दे, हां हो जाए तो ही सपनों के पंख लगाकर उड़ना।
माता-पिता के लौट आने के पीछे-पीछे एक पत्र भी सपनों के राजकुमार द्वारा लिखा एक संदेशा ले आया जिसमें उसने अपने मन की बात लिखी थी और मुझसे हां मांगी थी। मैं हां बोलूं तो वे देखने आए। ये मेरे जीवन का पहला प्रेम पत्र 4 सितम्बर 88 को लिखा गया था जोकि इस प्रकार था-
4सितम्बर88
(रात्रि दस बजे)
कनी जी,
माता-पिता जी तो सकुशल रामपुर पहुंच गए होंगे।
आप भी प्रसन्नचित्त होंगी ऐसी आशा है।
आपके(हमारे) माता-पिता का अनुरोध है कि रामपुर आकर आपसे वार्त्तालाप के उपरान्त जीवन को एक नया स्वर दूं।
जीवन को रुचिकर बनाने के लिए रुचियों का होना अत्यावश्यक है। आपकी रुचियों का स्वर कथा-कविता का सर्जन है। जीवन को काव्य कहें या कविता। यदि हम जीवन की कथा को कविता बना दें तो जीवन-यात्रा सरसता अर्थात् सुख-शान्ति के साथ बीत सकती है। आप क्या कहती हैं?
सभी जीवन को लेकर एक स्वप्न देखते हैं। आपने भी देखा होगा। आपका स्वप्न क्या है? क्या उसको यथार्थ में देखने के लिए सह-दर्शक बन सकता हूं?
यह तो आप भी जानती हैं कि जीवन की डगर कंटकीली है। क्या आप उस डगर पर साथ चलकर जीवन लक्ष्य पा लेने को तैयार हैं। यह अनुभूत तथ्य है कि सहयात्री के साथ जीवन को स्वर देने के प्रयास में सहज ही बीत जाती है, जीवन की दीर्घ यात्रा।
पत्र को अन्यथा न लेंगी ऐसी आशा है।
स्वार्थी न कहलाऊं इसीलिए मेरी ओर से माता-पिता एवं सभी को सादर अभिवादन कहिएगा।
शेष उत्तर के बाद ही कोई कार्यक्रम निर्धारित करूंगा।
सप्रेम-
राज
इस पत्र के उत्तर में मैंने हां की स्वीकृति भेज दी थी। फिर ये अपनी माता व भाईयों सहित मुझे देखने आए और विधि का विधान ऐसा कि ये मेरे जीवनसाथी बन गए। शायद ईश्वर ने मेरे लिए यही संजोग लिखा था।