नोटबंदी 2.0 और प्रभाव~
मुद्रा किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की गाड़ी के ईंधन के रूप में होती है । इतिहास में इन मुद्राओं का रूप रंग और गुणवत्ता काफी कुछ उस वक्त के समाज की दशा और दिशा निर्धारित करने का काम आज भी करते हैं । सात साल पहले हुई नोटबंदी के बाद हालिया नोटबंदी 2.0 ने इस बहस को ना केवल हवा दी , बल्कि नोट और मुद्रा की उपयोगिता को सिरे से खंगालने के लिए हमे भी प्रोत्साहित किया है ।
सभ्यता की जब शुरुआत हो रही थी , और मनुष्य जंगली से सभ्य और स्थायी होने की प्रक्रिया में था , उस दौर में लेन देन का व्यवहार यानि विनिमय व्यवस्था किसी ठोस रूप में नहीं थी । वस्तुओं का आपसी लेन देन ही जरूरत के अनुसार व्यवहार में था, रेशम के बदले गेंहू लेना या गाय देकर दैनिक जरूरत के समान प्राप्त करना जैसी प्रक्रियाएं व्यवहार में थी । जो मोटे तौर पर जजमानी व्यवस्था ही थी ।
फिर क्रमशः एक सर्वमान्य मुद्रा के रूप में दुर्लभ वस्तुओं की स्वीकार्यता बढ़ी , अर्थात , सोने, चांदी, कौड़ी बाजारों में चलने लगे । समय समय पर इनका मुद्रीकरण शासकों द्वारा किया गया जो इन मुद्राओं को विश्वसनीय बना देते थे ।
मध्यकालीन शासक मुहम्मद बिन तुगलक ने तो सोने और चांदी के अपव्यय को रोकने के लिए सांकेतिक मुद्राओं का अनोखा उपाय किया , लेकिन व्यवस्था कमजोर थी , सो चतुर समाज के लोगो ने घर घर में टकसाले खोल ली , फलस्वरूप यह तुगलकी फरमान असफल हुआ उस दौर के समाज में तो ऐसी सांकेतिक मुद्रा के लिए तैयारियां नही थी, लेकिन आज हमारी अर्थव्यवस्था में हम ऐसी ही सांकेतिक मुद्रा का व्यवहार करते हैं ।
2016 में 'विमुद्रीकरण' या सर्वप्रचलित शब्द 'नोटबंदी' हो या उसी के अगले चरण के रूप में 2000 के नोटो के वापस लेने की बात हो । इनका प्रत्यक्ष उद्देश्य जमाखोरी और अवैध धन पर अंकुश लगाना ही है ।
पूर्व में चुनावों में धन बल से जीतने की बात हो या आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने की बात हो , या फिर भ्रष्टाचार और रिश्वत जैसे कुकृत्य रहे हो , काले धन का कारोबार किसी से छिपा नहीं हैं , लाख सरकारी प्रयासों के बावजूद जाली नोटों का कारोबार भी चरम पर था । ये सारे गोरखधंधे अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह न केवल चाटते रहे हैं बल्कि समाज को भी घुन की तरह खोखला करने का कार्य करते रहे हैं । नोटबंदी कथित रूप से ऐसे ही क्षयरोगों के इलाज के रूप में लाई गई थी ।
2016 में जारी किए गए नए नोटो में 2000 के ये नोट बड़े लेन देन के लिए एक अस्थाई व्यवस्था के रूप में ही तथाकथित रूप से लाए गए थे । पिछले कुछ वर्षों से इनकी छपाई भी 'रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया' द्वारा बंद कर दी गई थी । और हाल का निर्णय जो 30 सितंबर तक इन नोटों को बदलने के लिए निर्देश देता है एक तार्किक और संतुलित निर्णय ही है ।
2016 के क्रांतिकारी नोटबंदी से इतर यह द्वितीय नोटबंदी आम जनमानस पर कोई ऋणात्मक असर डालती नही दिख रही है । जहां पहली नोटबंदी ने पूरे देश को सड़कों पर खड़ा कर दिया था और कुछ समय के लिए सारा देश आशंकाग्रस्त था । वही इस नोटबंदी से ऐसा कुछ भी तात्कालिक प्रभाव देखने को नहीं मिलता । यद्यपि जमाखोरी और अवैध नोटों पर यह एक अंतिम प्रहार जरूर करेगी । बड़े नोटो के बंद होने से अर्थव्यवस्था में लाख प्रयास के बाद भी बड़ी मात्रा में अवैध नोटों का कारोबार नही हो सकेगा । आम जनमानस पर इसका कोई दुष्प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है ।
नोटो की गर्मी, बाप बड़ा ना भैया -सबसे बड़ा रुपैया जैसे मुहावरेबाजी हो या नोटो के पर्याय के रूप में गांधीजी का इस्तेमाल हो , इस सबमें वास्तव में एक ऐसे रूपक को अतिशय तवज्जो दी जाती रही है जो एक लीगल टेंडर मात्र ही है । एक ऐसा ईंधन जो ये निर्धारित करता है कि आपकी गाड़ी कितनी दूर और कितने सहज तरीके से सैर करेगी, स्वयं गांधीजी ने भी धन संग्रहण को तिरस्कृत किया था , जैन हो या बौद्ध सभी में अपरिग्रह की बात की गई है । प्रकृति में सभी की जरूरतों की पूर्ति के लिए संसाधन मौजूद हैं, लेकिन किसी के लोभ की पूर्ति के लिए नहीं । नोटबंदी 1 हो या नोटबंदी 2.0 सारी तकनीकी बातों से इतर इसी भावभूमि पर पहुंचने का प्रयास है ~ऋतेश