विश्व पर्यावरण दिवस~
इन दिनों गांव में हूं। सुबह शवासन के दौरान जब आसमान की ओर देखा , नीला, स्वच्छ और निर्मल आसमान आंखों की खिड़की के सामने बदस्तूर पसरा पड़ा था । ऐसा जैसे कि वायुमंडल में किसी ने अभी अभी झाड़ू लगा दिया हो । अगर आप भी किसी दूर गांव में निवसित हैं तो आपको मेरी ये बातें सिरफिरी लग रही होगी, लेकिन मेट्रो शहरों में रहने वाले दोस्तों से पुछिए तो वो आपको बताएंगे कि कितना दुर्लभ दृश्य है ये उनके लिए। माचिसनुमा भवनों वाली कॉलोनियों में रहते महानगर वासी इन दृश्यों को भूल चुके हैं , जब वो रात में ननिहाल में छत पर लेटे हुए हर तारों को ढूंढ ही लेते थे । जब नदी या पास के पोखरों के पानी का स्वाद उनको जुबानी मालूम था , जब नलों से निकलते पानी से बुझती प्यास की संतुष्टि ही कुछ और थी, अमुक चाचा के नल का पानी इतना मीठा था कि उतनी तलब तो किसी मादकता में नहीं थी । और तो और हर गली मोहल्ले और टोलों की खुशबुओं से जैसे रोज का राब्ता था । ये आसमां, ये पानी और इन हवाओं को आज ऐसा क्या हो गया जिसको सीधे लेने में हम आज गुरेज करने लगे हैं । पानी पीते वक्त कहां से आया है और सांस लेने में भी फिल्टरेशन की जरूरत आज क्योंकर पड़ने लगी है । प्रदूषण से पैदा हुई न जाने कितनी अनगिनत बीमारियों से आज सभी सशंकित से क्यों पड़े हैं । इन सभी को जांच बरत कर ही आज यानी ५ जून को सारा विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मना रहा है । जो पर्यावरण को फिर से हरा भरा और निर्मल करने की ही एक कवायद है ।
आधुनिक युग की दूसरी क्रांति यानी उद्योग की क्रांति ने मनुष्य को एक नई राह दिखला दी, मानवता इस राह पर सरपट दौड़ पड़ी । लोहा हो कोयला हो या इन पर आश्रित अन्य सारे उद्योग जो मनुष्य को आधुनिक बना रहे थे , उनको अधिकाधिक बनाने की एक होड़ सी मच पड़ी, और इस घुड़दौड़ में मानवता कब रास्ता भटक कर गुमराह हुई उसे भान ही नहीं हुआ। नतीजतन चिमनियों की भट्टियों में जंगलों को काटकर झोंकने का ऐसा उपक्रम होने लगा जिसपर कोई अंकुश नहीं था , इन बेजुबान पेड़ों के लिए कोई कानून नहीं था, किसी संविधान में इनके लिए कोई मौलिक अधिकार नही गढ़ा गया था ।
इस अंधाधुंध दोहन ने पृथ्वी की हरियाली को धूमिल कर दिया । मानवता के मन का रेगिस्तान धरती पर पनपने लगा । धरती के फेफड़े ये जंगल और पेड़ जब कमजोर हुए तो धरती का भी दम फूलने लगा , हवा दूषित हुई तो पानी भी और फिर मिट्टी भी । महायुद्धों से निकले विश्व में जब मानवीयता के लिए आस्था जगी तब विश्व समुदाय ने इसके लिए सामूहिक जिम्मेदारी निर्वहन की अंगड़ाई ली ।
1972 में पर्यावरण को बचाने की पहली कोशिश वार्ता से शुरू हुई , और इस शुरुआत की तिथि 5 जून को ही विश्व पर्यावरण दिवस की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाने लगा । इसके बाद से रियो डी जेनेरियो सम्मेलन हो या क्योटो सम्मेलन या कोप सम्मेलनों के दौर , इनके द्वारा अनैतिक हुआ विश्व नैतिकता का दंभ भरता है , "मैं नहीं तू" की तर्ज़ पर कार्बन कटौती के लिए एक दूसरे का मुंह देखा जाता है । सभ्य और विकसित देश/समाज ये भूल जाता है कि विकसित होने की प्रक्रिया में जितना दोहन उन्होंने कर डाला उतने की भरपाई की जिम्मेवारी उनकी ही बनती है ना कि ये भरपाई उन मुल्कों पर थोपी जाए जो अभी विकास की प्रक्रिया में हैं । खैर रेगिस्तान हुए मन में जंगल का भाईचारा तलाशना ही बेमानी बात है ।
भारत की पहचान ही पर्यावरण से जुड़ी है । वेदों की हर ऋचा प्रकृति की उपासना से अनुप्राणित है । पृथ्वी,वायु,जल,अग्नि, आकाश से ही हमारी कोशिकाएं पोषण लेती हैं , और हम जीवित हैं । फिर भला हम पर्यावरण से कितने और कब तक विमुख हो सकते हैं भला । हालांकि पश्चिम की चकाचौंध से कुछ वक्त के लिए हमारा अंतर्ज्ञान धूमिल हुआ, जंगल काफी उजाड़ दिए गए , पानी, मिट्टी, हवाओं में विष काफी हद तक घुलता भी रहा है । बजाय इसके भारतवर्ष की मूल प्रकृति ही पर्यावरणीय रही है । तुलसी जैसी औषधीय पौधे को हम आंगन में सजाकर रखते हैं, तो दरवाजे के पीपल को हम देवता बनाकर पूजते हैं जो अकेला ही 200 लोगों को ऑक्सीजन देता है । पेड़ों को काटना हमारे यहां पाप माना जाता रहा है , याद कीजिए मजबूरीवश काटे गए दरवाजे के उस पेड़ के कट कर गिर जाने के बाद की मनहूसियत। आपको भी अपने अंदर बैठा आदृत पर्यावरणीय बोध महसूस होगा ।
हिमालय से निकली एक पानी की धारा जो सदियों से बहती हुई हमारा आदर पाती है और हम उसे गंगा मां कह उठते हैं । जानवरों से लेकर हर उस चीज के प्रति श्रद्धा हमसे कोई राज्य कोई सरकार या कोई संविधान और कानून नहीं मनवाता बल्कि हमारे अंदर के संस्कार ही ऐसे हैं कि हम ज्ञानवश या श्रद्धावश सिर नवाते हैं । कुल मिलाकर भारत के लिए हर दिन पर्यावरण दिवस के रूप में है । बस उसे स्वयं के भीतर के बोध को समझने की आवश्यकता है , साथ ही समस्त विश्व को भी पर्यावरण के लिए कोई जिम्मेदारी समझकर नही बल्कि इसे अपना एक हिस्सा समझकर ही कोई भी प्रयास करने जी जरूरत है , न्यूजीलैंड में वांगनुई नदी को दिया गया मानव का दर्जा इसी दिशा की ओर एक उपक्रम हैं । अंततः मानवता को स्वार्थी होकर अपनी तोंद ना बढ़ाकर प्रकृति की गोंद में ही फलने फूलने और विकसित होने की जरूरत है ~ऋतेश आर्यन