विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस~
" और बच्चो की भूख चॉकलेट की नहीं बिस्किटों के लिए थी "
वह सुबह थी मेरे जन्मदिन की , जब मैं थोड़े बहुत टॉफियां, चॉकलेट और बिस्किट्स लेकर पास के ही उस झोपड़पट्टी वाली बस्ती में घुस गया , बच्चों का झुंड धीरे धीरे मुझे घेर रहा था , और मेरी आंखों में आंसू थे जब उन बच्चो ने स्वादिष्ट चॉकलेट्स की बजाय पेट भरने वाले बिस्किटों की मांग की । मेरी आंखे नम भी थी और उस छोटे से थैले पर मुझे अफसोस भी हो रहा था । काश ये थैला और बड़ा होता, इतना बड़ा कि जिससे हर प्राणिमात्र की क्षुधा को तृप्ति मिल सकती । इस गुहार की पुकार से देश और दुनिया भी वाकिफ है , आज का दिन ७ जून विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस के रूप मनाया जाना इसी की एक बानगी है ।
यूं तो भोजन की आपूर्ति सारी दुनिया के लिए एक जरूरी मुद्दा है , फिर भी भारत जैसे देश में जहां विश्व का लगभग छठवां भाग निवसित हैं, भूख का मसला एक अत्यंत संवेदनशील मसला है । एक निश्चित भूभाग और सीमित संसाधनों वाले देश में इतनी विशाल जनसंख्या रहती है , ऐसे में सभी तक भोजन की पहुंच एक चुनौती है । जहां वैश्विक मानकों में कुपोषण और भूख के पैमाने पर भारत हमेशा निचले पायदान पर ही नजर आता है । आखिरकार वो कौन सी चूकें हैं जिनकी वजह से हम मानव की न्यूनतम आवश्यकता को भी पूरा नहीं कर पा रहे । आखिरकार मानव, मानव होने के नाते गरिमा का पात्र तो है ही ।
भारत अन्नों का और अन्नदाताओं का देश रहा है , बावजूद इसके वितरण की खामियों और बिचौलिया तंत्र के स्वार्थी नजरिए से पूरी वितरण प्रणाली प्रदूषित रही है । नतीजतन जरूरतमंदों को एक पोषक थाली नही मिल पाती है । इसके अलावा अन्नो का भंडारण कुशलता से ना हो पाने से एक लंबे समय तक अन्नाे की बरबादी भी होती रही है ।
विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस का इस बार का विषय एक अन्य जरूरी समस्या पर प्रहार करता है । इस बार के विषय में खाद्य मानकों की उपयोगिता पर बल दिया जाना इस बात का परिचायक है कि कम खाकर मरने वालो से अधिक ज्यादा खाकर मरने वालो की तादाद है । सही जानकारी या जागरूकता के अभाव में असंतुलित भोजन ना केवल असाध्य रोगों को जन्म देते हैं बल्कि जनबल और जनधन का अधिकांश हिस्सा स्वास्थ्य समस्याओं की बलि चढ़ जाता है । इस दिशा में भी ध्यान देने की जरूरत है ।
विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रयास हो या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के , भूख और कुपोषण से लड़ते रहने की जिजीविषा दिखती तो है लेकिन प्रभावी नजर नहीं आती । अफ्रीका की बहुधा जनसंख्या एक समुचित और संतुलित खाद्य आवश्यकताओं से वंचित है ।
भारत ने आजादी के बाद से ही गरीबी, भूख और कुपोषण से एक लंबी लड़ाई लड़ी है । भ्रष्टाचार, जमाखोरी, भाई भतीजावाद, लाल फीताशाही सिर्फ किताबी विषय नहीं हैं, हमने आपने इसे यत्र तत्र सर्वत्र महसूस किया है । बावजूद इसके सभ्यता की बेहतरी की ये जंग जारी रही है ।
2013 का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम हो या मध्यान्ह भोजन योजना हो या फिर मनरेगा के द्वारा अंतिम आदमी के हाथ में कुछ मूल्य देकर उसकी भूख मिटाने के कवायद हो , ये सभी ये दर्शाते हैं कि हर अंधेरों के बीच उजालों की जंग जारी है , कोरोना और लॉकडाउन के दौरान सभी ने देखा कि मानवीयता ने अपने जिंदा होने के सबूत प्रस्तुत कर दिए, सोनू सूद और ना जाने कितने संगठन , व्यक्ति और समाजों ने एक दूसरे के लिए भोजन मुहैया कराया ।
शुरुआती दर्जों की किताबो में पढ़ा था " शरीर एक मंदिर हैं " । इस मंदिर की देखरेख व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से किया जाना एक अपरिहार्य आवश्यकता है । यदि व्यक्ति सक्षम नहीं हो पा रहा तो ये जिम्मेवारी राज्य की बनती है, समाज और देश की बनती हैं हमारी और आपकी भी बनती है । इस मूल कर्तव्य को जिस दिन सभी ने यथोचित आत्मसात कर लिया , तो सभवतः आने वाले दशकों में खाद्य सुरक्षा दिवस की आवश्यकता ही ना पड़े~एवमस्तु ~ऋतेश आर्यन