जैसा कि मेरी पुस्तक के नाम से ही पता चल रहा है कि यह पुस्तक औरतों पर लिखी गई है। मैंने अपनी इस किताब में औरतों की स्थिति को उजागर किया है। मैंने इसमें दिखाने की कोशिश की है कि किस प्रकार औरतों से उनकी आजादी सिर्फ यह कहकर छीन ली जाती है कि वे औरतें हैं। इसी के चलते उनकी जिंदगी महज घर की चार दीवारी में गुजर जाती है। उन्हें यह कहकर घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता कि बाहर का माहौल खराब है, उनके लिए सुरक्षित नहीं है। जिसके कारण न उन्हें अच्छी शिक्षा मिल पाती है और न ही वे अपने पैरों पर खड़ी हो पाती हैं। आगे चलकर इसी बात का फायदा औरतों के ससुराल वाले उठाते हैं और उन्हें दहेज आदि के लिए परेशान करते हैं। पुरुष प्रधानता का कारण भी औरतों का आजादी न होना है। हालांकि शहरों में अब यह धारणा थोड़ी कम हो गई है, लेकिन कहीं न कहीं हमारे गांव में यह धारणा अभी भी बरकरार है। वहां आज भी लोग यही मानते हैं कि बाहर का माहौल औरतों या लड़कियों के लिए सही नहीं है। जिसके चलते आगे चलकर औरतों के लिए घर का माहौल बाहर के माहौल से भी बदतर बन जाता है। वे बिचारी अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पातीं, केवल अपने पतियों पर निर्भर होकर रह जाती हैं। हमें इस सर्किल को तोड़ना होगा क्योंकि औरतें बाहर सुरक्षित इसलिए नहीं होतीं क्योंकि वहां उनकी गिनती मर्दों से कम होती है और आप जानते ही हैं कि जिनकी संख्या ज्यादा होती है वे हमेशा कम संख्या वालों को दबाने की कोशिश करते हैं। हम जितना अपनी बेटियों को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जाने-अनजाने में उन्हें उतना ही असुरक्षित कर देते हैं। हम उन्हें घर पर कैद करके रखते हैं, जिसके कारण जब वे घर से बाहर जाती हैं तो उनके मन में एक अजीब सा डर होता है। वे बाहर के लोगों से बातचीत करने में भी असहज महसूस करती हैं।
नोट: इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं, इनका असल जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं है। यह कहानी मैंने अपनी कल्पना से रची है। यह किसी सच्ची घटना से कोई ताल्लुक नहीं रखती है।