सत्य का अनुसरणः एक यक्ष प्रश्न ?************************( जीवन की पाठशाला से )*************************आज का मेरा विषय यह है कि यदि मैंने यह कह दिया होता - " हाँ, पिताजी यह स्याही की बोतल मुझसे ही गिरी है।" तो मेरे इस असत्य वचन से मेरा परिवार नहीं बिखरता।************************* जहां में सबसे ज
ज़िदगी तूने क्या किया*****************( जीवन की पाठशाला से )जीने की बात न कर लोग यहाँ दग़ा देते हैं।जब सपने टूटते हैंतब वो हँसा करते हैं। कोई शिकवा नहीं,मालिक ! क्या दिया क्या नहीं तूने।कली फूल बन के अब यूँ ही झड़ने को है।तेरी बगिया में हम ऐसे क्यों तड़पा करते हैं ?ऐ
ज़ख्म दिल के************(जीवन की पाठशाला)कांटों पे खिलने की चाहत थी तुझमें,राह जैसी भी रही हो चला करते थे ।न मिली मंज़िल ,हर मोड़ पर फिरभी अपनी पहचान तुम बनाया करते थे।है विकल क्यों ये हृदय अब बोल तेरादर्द ऐसा नहीं कोई जिसे तुमने न सहा।ज़ख्म जो भी मिले इस जग से तुझेसमझ,ये पाठशाला है तेरे जीवन की।शुक्रिय
माँ की छाया ढ़ूंढने में सर्वस्व लुटाने वाले एक बंजारे का दर्द --( जीवन की पाठशाला )--------------------------------------हम न संत बन सके***************शब्द शूल से चुभे , हृदय चीर निकल गये दर्द जो न सह स
रामनाम सत्य ..!!!***************( लघु कथा )रामनाम सत्य .. रामनाम सत्य.. क्या कोई शवयात्रा है ? सड़क पर तो ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा था.. फिर क्यों भरी दुपहरी में यह व्यक्ति ऐसे बुदबुदा रहा था .! क्या यह उसका अंतर्नाद है अथवा विरक्त मन की आवाज ..ठीक से समझ नहीं
आईना वो ही रहता है , चेहरे बदल जाते हैं *****************************जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगेकिराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है.. तो मित्रों , सियासी आईने की तस्वीर एक बार फिर बदल गयी । जिन्हें गुमान था , उनका विजय रथ रसातल में चला गया। सिंहासन पर बैठे वज़ीर बदल गये हैं। भारी जश्न है चार
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही************************हो, गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँदूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँज़िंदगी ज़िंदगी को बुलाती रहीआप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहेदिल से कदमों की आवाज़ आती रहीआहटों से अंधेरे चमकते रहेरात आती रही रात जाती रही... कैसी विडंबना है मानव जीवन का कि कर्म नहीं नि
ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..***************************ये जीवन है इस जीवन का यही है, यही है, यही है रंग रूप थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ यही है, यही है, यही है छाँव धूप ये ना सोचो इसमें अपनी हार है कि जीत है उसे अपना लो जो
मेरे दिल से ना लो बदला ज़माने भर की बातों का ठहर जाओ सुनो मेहमान हूँ मैं चँद रातों का चले जाना अभी से किस लिये मुह मोड़ जाते हो खिलौना, जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो मुझे इस, हाल में किसके सहारे छोड़ जाते हो खिलौना ... खिलौना फिल्म की यह गीत और यह मेहमान ( अतिथि ) शब्द मेरे जीवन की सबसे कड़वी
कितना मुश्किल है पर भूल जाना...(दीपावली और माँ की स्मृति)*******************************हमें तो उस दीपक की तरह टिमटिमाते रहना है ,जो बुझने से पहले घंटों अंधकार से संघर्ष करता है, वह भी औरों के लिये, क्यों कि स्वयं उसके लिये तो नियति ने " अंधकार " तय कर रखा है..******************************बिछड़ गया
मुझसे पहले तू जल जायेगा.. दीपोत्सव पर्व को लेकर बजारों में रौनक है। कल धनतेरस पर करोड़ों का व्यापार हुआ है। बड़े प्रतिष्ठान चाहे जो भी हो,धन सम्पन्न ग्राहकों का प्रथम आकर्षण वहीं केंद्रित रहता है। छोटे -छोटे दुकानदार फिर भी कुछ उदास से ही दिख रहे हैं , इस चकाचौंध भरे त्योहार में। सो, हमारा प्रयास हो
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ..***************************** यहाँ मंदिर पर बड़े लोग सैकड़ों डिब्बे मिठाई दनादन बंधवा रहे हैं। ये बेचारे मजदूर तो ऊपरवाले का नाम ले, अपने मन की इच्छाओं का दमन कर लेते हैं , परंतु इन गरीबों के बच्चों को कभी आप ने दूर से टुकुर-
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे..********************** एक बात मुझे समझ में नहीं आती है कि इस अमूल्य जीवन की ही जब कोई गारंटी नहीं है, तो फिर क्यों इन संसारिक वस्तुओं से इतनी मुहब्बत है। खैर अपना यह जीवन आग और मोम का मेल है, कभी यह सुलगता है, तो कभी वह पिघलता है...***********************दर्द
दिवंगत पत्रकार की श्रद्धांजलि सभा में फफक कर रो पड़ी केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया ----------आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है************************** पत्रकारिता जगत ही नहीं समाजसेवा के हर क्षेत्र में यदि हम त्यागपूर्ण तरीके से अपना कर्म करेंगे, तो समाज हमारा ध्यान आज इस अर्थ प्रधान युग में भी रखता
वो जुदा हो गए देखते देखते..*************************दबाव भरी पत्रकारिता हम जैसे फुल टाइम वर्कर के लिये जानलेवा साबित हो रही है। पहले प्रेस छायाकार इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव की दुर्घटना में मौत और एक और छायाकार कृष्णा का घायल होना,वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर दिनेश उपाध्याय का मौत के मुहँ से निकल कर किसी तरह
वसुधैव कुटुम्बकम का दर्पण यूँ क्यों चटक गया..********************बड़ी बात कहीं उन्होंने ,यदि हम इतना भी त्याग नहीं कर सकते तो आखिर फिर क्यों दुहाई देते हैं वसुधैव कुटुम्बकं की ? शास्त्र कहते हैं कि आदर्श बोलते तो है पर उसका पालन नहीं करते तो पुण्य क्षीण होता है ।****************गुज़रो जो बाग से तो दु
है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर... ************************मैं और मेरी तन्हाई के किस्से ताउम्र चलते रहेंगे , जब तक जिगर का यह जख्म विस्फोट कर ऊर्जा न बन जाए , प्रकाश बन अनंत में न समा जाए।***************************(बातेंःकुछ अपनी, कुछ जग की)कल सुबह अचानक फोन आया ..अंकल! महिला अस्पताल में पापा ने आ
जब तक मैंने समझा जीवन क्या है ,जीवन बीत गया...********************************रावण का पुतला दहन हम नहीं भूले हैं। लेकिन, भ्रष्टाचार, अनाचार और कुविचार से ग्रसित हो हम
जब किसी से कोई गिला रखना ************************ यहाँ मैं गृहस्थ, विरक्त और संत मानव जीवन की इन तीनों ही स्थितियों को स्वयं की अपनी अनुभूतियों के आधार पर परिभाषित करने की एक मासूम सी कोशिश में जुटा हूँ। *************************मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नह
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है..******************** पुरुष समाज में से कितनों ने अपनी अर्धांगिनी में देवी शक्ति को ढ़ूंढने का प्रयास किया अथवा उसे हृदय से बराबरी का सम्मान दिया..? शिव ने अर्धनारीश्वर होना इसलिये तो स्वीकार किया। पुरुष का पराक्रम और नारी का हृदय यह किसी कम्प्यूटर के हार्डवेय