मेरे दिल से ना लो बदला ज़माने भर की बातों का
ठहर जाओ सुनो मेहमान हूँ मैं चँद रातों का
चले जाना अभी से किस लिये मुह मोड़ जाते हो
खिलौना, जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो
मुझे इस, हाल में किसके सहारे छोड़ जाते हो खिलौना ...
खिलौना फिल्म की यह गीत और यह मेहमान ( अतिथि ) शब्द मेरे जीवन की सबसे कड़वी अनुभूति है, नियति भी है। अपने घर बनारस, मौसी के घर मुजफ्फरपुर, छोटे नाना के घर कलिम्पोंग और अब इस मीरजापुर में भी लम्बे समय तक चाहे-अनचाहे मेहमान जैसा ही तो रहा हूँ।
यह दर्द तब और बढ़ जाता है, जब अपने ही घर में अनचाहे अतिथि की तरह व्यवहार होता है। मैंने अपनी दादी को उनके कमरे से ऊपर किचन की ओर जाने वाली सीढ़ी की तरफ नजर टिकाये देखा है , सुबह - शाम की चाय की चाह में , तुलापट्टी वाली दादी को उनके धनाढ्य भतीजे के कारखाने से सोनपापड़ी के चूरे बटोरने की चाहत लिये भी देखा है और मैं निठल्ला जब था, तो स्वयं भी उस भोजन की थाल को स्वीकार करने की मौन चाहत लिये रहता था घर पर , जिसकी सब्जी की कटोरी में सिर्फ आलू ही छोड़े जाते थें , तो पतली रोटियाँ गिनती के चार ही मिलती थीं । अब तो अनेक घरों में वृद्ध माँ - बाप भी अनचाहे अतिथि से हैं। कैसी विडंबना है यह हमारे समाज की कि पूर्वजों ने तो हमें अतिथि देवो भव का पाठ पढ़ाया है। बिहार प्रान्त में जामाता को ससुराल में प्रेमपूर्वक मेहमान , कहा जाता है। लेकिन अतिथि, मेहमान, पाहुना की परिभाषा बदल सी गयी है।
अपनी यादों की पोटली को टटोलते हुये शुरुआत बचपन से ही करता हूँ, जब कोलकाता में अपनी माँ का लाडला मुनिया हुआ करता था और बाबा - मौसी जी का प्यारे ..। मुझे शशि और पप्पी कह वहाँ कोई नहीं बुलाता था। वहीं , प्रथम बार मेरे बालमन को अतिथि होने का आभास हुआ था, जब मैं बड़े लोग ( बाबा के खास रिश्तेदार) के घर बालीगंज गया था और वहाँ से बिल्कुल उदास होकर लौटा था, उनकी ही कार से वापस बड़ा बाजार अपने घर ।
फिर तो मैं यह रट लगाये रहता था कि माँ , मुझे बालीगंज नहीं जाना है । मेहमानों ( अतिथि ) की तरह रहना मुझे वहाँ बिल्कुल पसंद नहीं है..। पिछली बार जब गया था, तो मौसी जी आँखों के इशारे से समझा रही थी कि डायनिंग टेबुल पर जब उन सबके साथ बैठ कर भोजन कर रहे हो तो याद रखों प्लेट पर चम्मच की आवाज बिल्कुल नहीं आनी चाहिए और न ही मुहँ से भोजन चबाने की , साथ ही यह भी हिदायत थी कि अधिक कुछ भी न मांगना और बोलना वहाँ जाकर..।
वे लोग काफी धनी थें कोलकाता में कई प्रतिष्ठान तो थें ही, लंडन में भी उनका अपना कारोबार था तब।
उधर,मौसी जी जितना ही अनुशासन प्रिय थीं, मैं बचपन से उतना ही नटखट था। माँ - बाबा का भय तो मुझे तब भी नहीं था , जब दूसरी बार कोलकाता रहने गया , लेकिन मौसी जी की आँखों के एक इशारे से मेमना बन जाता था। मैं लिलुआ , ठाकुर- पुकुर , तुलापट्टी, रासबिहारी सभी जगह खुशी- खुशी जाने को तैयार रहता था। लेकिन, जब भी बालीगंज की बात उठती थी , वहाँ अतिथि बन चुपचाप टुकुर- टुकुर सब कुछ निहारते रहना, मेरे लिये किसी कैदखाने से कम नहीं था ।
पर मुझे तब क्या पता था कि भविष्य में अतिथि सा बने रहना ही मेरी नियति है। माँ , की मौत के बाद जब मुझे कोलकाता(ननिहाल) से जबर्दस्ती वापस वाराणसी मम्मी- पापा के साथ भेजा जा रहा था और मैं इसके लिये तैयार नहीं था। तब मौसी जी ने यूँ कह ढांढस बंधाई थी कि तुम पढ़ने जा रहे हो वहाँ, फिर आ जाओगे न यहाँ, यह तो तुम्हारा घर है अपना..और यही बात पापा को बुरी लगी थी तब। लेकिन, उधर मैं इसी दिलासे से मन को तसल्ली देता रोते- रोते बनारस लौट तो आया, जहाँ अपने ही घर में सचमुच अतिथि सा बन कर ही रह गया। जब भी डांट पड़ती , तो यह सुनने को भी मिलता कि तुम्हारा घर तो कोलकाता है न..? मेरे छोटे भाई को जो दुलार वहाँ मिलता था, जिस तरह से हर सामग्रियों पर उसका अधिकार था और उसकी इच्छाओं का ही सर्वप्रथम सम्मान था । वहीं , कोलकाता में मैं तो अपने माँ - बाबा की आँखों का तारा था , उन स्मृतियों को याद कर मैं एकांत में फूट-फूट कर रोता था । जिस किशोरावस्था में बच्चों के पांव फिसलने का खतरा सबसे अधिक होता है,उसी दौरान मेरा मन बार बार चित्कार कर उठता था ..
नादान ……नासमझ …….पागल दीवाना
सबको अपना माना तूने मगर ये न जाना …
मतलबी हैं लोग यहाँ पैर मतलबी ज़माना
सोचा साया साथ देगा निकला वो बेगाना
बेगाना …….बेगाना ….
अपनों में मैं बेगाना बेगाना
अंततः अपने ही घर में अतिथि जैसा रहना , अपने मन से कुछ भी न कर पाने की इस असहनीय वेदना को मैं हाईस्कूल की परीक्षा देते ही और नहीं सह सका , तो अकेले ही कोलकाता बाबा के पास ट्रेन पकड़ निकल पड़ा यह सोच कर कि मैं अब अपने घर जा रहा हूँ, मौसी जी ने तो यही कहा था न..। पर अफसोस अकेलेपन का दर्द लिये बाबा भी राह भटक चुके थें । वहाँ भी मेरा वह घर नहीं रहा अब , सप्ताह भर मेहमान जैसा कोलकाता में रहा । जो बाबा मुझे कभी अकेले छोड़ते नहीं थें , उन्होंने मुजफ्फरपुर के लिये मुझे ट्रेन पकड़ा दी। मन मारे मैं मौसी जी के घर चला आया। वे मुझे अपना बेटा ही मानती थीं तब भी और अब भी..। लेकिन वहाँ मौसा जी चार भाई थें । उनके माता- पिता थें। सो, इतने बड़े परिवार में मैं था तो एक अतिथि ही न..?
आखिर एक मेहमान को कोई कितने दिन अपने साथ रखता , अतः वर्ष भर बाद बड़े मौसा जी मुझे पुनः बनारस छोड़ आये। घर से भागे लड़के को फिर भला कौन अपनाता और कितना स्नेह देता है। किसी तरह से इंटरमीडिएट की परीक्षा दें , घर में अनचाहा मेहमान के दर्द से मुक्ति पाने की ललक में अपनी माँ के सबसे छोटे भाई यानी की छोटे नाना जी के घर कालिम्पोंग के लिये मैं अकेले ही रवाना हो लिया। याद है आज भी कि ट्रेन से मध्यरात्रि सिलीगुड़ी उतरा । यहीं गुप्ता नर्सिंग होम में मेरा जन्म हुआ था। सो ,अपने जन्म स्थल को प्रथम बार नमन किया। रात प्रतिक्षालय में गुजारी और सुबह बस पकड़ आ पहुँचा सीधे कलिम्पोंग। छोटे नाना जी ने अपने बड़े से मिष्ठान दुकान में मेरा स्वागत किया और अपने पुराने घर में मेरे रहने का बंदोबस्त करवा दिया। मेरे भोजन के लिये दोनों वक्त टिफिन छोटी नानी जी दुकान पर भेज देती थीं। पर वहाँ भी था तो एक अतिथि ही न ..? मेरी पसंद - नापंसद को वहाँ कौन समझता। कुछ विशेष तरह के भोजन की जब इच्छा होती तो पड़ोस में एक कशमीरी पंडित परिवार था। पीछे बाथरुम के दरवाजे से मैं उनके फ्लैट में दाखिल हो जाता था और आंटी जी मेरी इच्छा पूरी कर देती थीं, वे मुम्बई की थीं और निश्छल स्वभाव की थीं। पूरा दिन तो मेरा नाना जी की दुकान में ही कट जाता था।
हाँ, कलिम्पोंग में मैं अनचाहा मेहमान नहीं था मैं , मेरे आने से नाना जी की दुकान में चोरी बंद हो गयी थी, क्यों कि कैश काउंटर पर हम दोंनों में से एक जो बैठे रहते थें। शाम ढलते- ढलते जब मैं थक जाता था, हाथ में टिफिन लिये अकेले अपने सुनसान रुम पर जाता था , तो उस तन्हाई भरी रातों में वस्त्र बदले बिना ही सो जाया करता था , आज भी मेरी यही पुरानी आदत है। पापा- मम्मी जब आये थें वहाँ, वे मेरे रुम पर भी गये और लाड- प्यार दिखला कर मुझे साथ ले गये।
कुछ दिनों तक तो मैं घर में राजाबाबू बना रहा , लेकिन फिर सिर्फ दो जून चार - चार रोटी पाने वाला अनचाहा अतिथि बन गया । दादी अपने हिस्से का भोजन देने लगी, तो दुखी मन से पापा के एक मित्र के विद्यालय में पढ़ाने लगा और वहीं बसेरा हो गया अपना , मेहमान की तरह । तभी विकल मन ने मुझे समीप के एक आश्रम में रहने को प्ररित किया। वहाँ भी अपना क्या था , सतनाम बाबा जो निर्देशित करते थें , उसका अनुसरण करना था। खड़ाऊ पहन लिया, पर श्वेत वस्त्र धारण करने से अन्तरात्मा ने जब इंकार कर दिया। एक बार फिर मुजफ्फरपुर से कालिम्पोंग भटकता रहा आशियाने की तलाश में , और जब वापस बनारस आया, तो मन की इस पुकार पर कि अब किसी रिश्तेदार के घर तुझे अतिथि सा नहीं रहना है, गांडीव अखबार अर्जुन के धनुष सा थामे इस अनजान से शहर मीरजापुर चला आया। वर्ष भर तो मीरजापुर - वाराणसी प्रतिदिन आता- जाता रहा। लेकिन, एक दिन दूर के रिश्ते में एक परोपकारी दम्पति ने मुझे अपने घर में स्नेह पूर्वक अतिथि बना लिया। नियति को शायद यही मंजूर था, सो मैं फिर से मेहमान सा बन गया । कुछ वर्षों तक वहाँ रहा, इसके पश्चात मेहमान से किरायेदार बन कर वर्षों विभिन्न स्थानों पर रहना पड़ा। लेकिन , पिछले दो वर्ष जहाँ पर था , वहाँ भी अतिथि की तरह ही तो रहा और अब जिस होटल में शरण ले रखा हूँ। जिसके स्वामी का स्नेह मुझ पर बना हुआ है , यह होटल भी तो अथिति देवो के लिये ही होता है न बंधु .. ?
जीवन के इस कड़ुवे सच से रुबरु इस पथिक ने इस वर्ष के प्रथम माह अपने लिये एक अपना आशियाना हो , यह तलाश अब बंद कर दी है । वह समझ चुका है कि मुसाफिरखाना ही उसके जीवन का आखिरी पड़ाव है। यहाँ अपनों के बीच वह बेगाना (अतिथि) तो नहीं है न ।
इस चाही -अनचाही मेहमानबाजी में अपनी यह ख्वाहिश तो कब की लुट चुकी है..
तुम अगर साथ देने का वादा करो
मैं यूँही मस्त नग़मे लुटाता रहूं
तुम मुझे देखकर मुस्कुराती रहो
मैन तुम्हें देखकर गीत गाता रहूँ..
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