सत्य का अनुसरणः एक यक्ष प्रश्न ?************************
( जीवन की पाठशाला से )
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आज का मेरा विषय यह है कि यदि मैंने यह कह दिया होता - " हाँ, पिताजी यह स्याही की बोतल मुझसे ही गिरी है।" तो मेरे इस असत्य वचन से मेरा परिवार नहीं बिखरता।
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जहां में सबसे ज्यादा अश्क जिसके नाम पर बहा...ज़माने ला गमे हुसैन का कोई जवाब ला.. वो कल भी जिंदाबाद थें..वो अब भी जिन्दा बाद हैं...।
विश्व में अनेक दुखदायी घटनाओं पर आंसुओं के दरिया बहते दिखे हैं। मगर इतिहास के किसी भी दौर में मनुष्य ने इतने अधिक आंसू न बहाए होंगे और मातम न किया होगा, जितना कि करबला के मैदान में हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर हुआ और होता आ रहा है ।
सत्य की राह पर जो चलता है , वह इतिहास के पन्नों में अमर हो जाता है। आज भी मोहर्रम पर इमाम चौक से कर्बला की ओर बढ़ रहे ताजिये को देखने के लिये मजहबी बंधनों को तोड़ हजारों लोग उमड़े।
जहाँ या हुसैन की सदाओं से शहर गूंजता रहा ,तो वहीं मुझे भी बाल्यावस्था की याद ताजी हो आयी। बचपन में जब वाराणसी में था , तो हम बच्चों को ताजिया दिखलाने दादी ले जाया करती थीं। नगीने वाली बड़ी एवं छोटी ताजिया , रांगा वाली ताजिया, पीतल वाली ताजिया और भी कितनी ही ताजिया हमें देखने को मिलती थी। मजहबी भावनाओं से ऊपर उठ हम श्रद्धापूर्वक अपना शीश इमाम चौक पर झुकाते थें। वैसे तो शिक्षिक-शिक्षिका रहे हमारे पापा- मम्मी को यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि हम बच्चे ऐसे अवसर पर संवेदनशील क्षेत्रों में न जाया करें,परंतु दादी का यह पूरा विश्वास था कि इस रात दंगा नहीं होगा। वैसे जिस दिन ताजिया उठता था, माहौल बिगड़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जाता था। जैसे ही हमारे घर के समीप हनुमान मंदिर से जुड़े चबूतरे पर ताजिया रखने को होता था। पहले से ही मंदिर और ताजिया स्थल के मध्य लकड़ी की मोटी- मोटी बल्लियाँ रस्सियों से बांध दी जाती थीं। फिर भी जब ताजिया उठता था और तब धार्मिक नारा लगते ही हमारे अभिभावक घर का मुख्यद्वार बंद कर स्वयं पहरेदार बन जाते थें । सुरक्षा के लिहाज से हम तीनों भाई - बहनों को ऊपरी मंजिल पर भेज दिया जाता था । आखिर ऐसा क्यों होता था, तब मेरा बालमन इसे बिल्कुल नहीं समझ पाता था। कभी कोई ताजिया जुलूस पर तो कभी कोई दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरन पत्थरबाजी क्यों कर दिया करता था । ये कौन लोग थें ?
खैर , छोड़े इन बातों को। अपने बनारस में अब वर्षों से ऐसी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई है।
यहाँ आज मैं यह सोच रहा हूँ कि सत्य का अनुसरण करने में ईशामसीह , सुकरता एवं महात्मा गांधी आदि अनेक समाज सुधारकों ने जीवन के पथ पर आत्माहुति दी है।
अतः स्थिति स्पष्ट है कि सत्य का संरक्षण सिर्फ सच बोल कर ही नहीं किया जा सकता , वरन् इसके लिये आत्मबलिदान की भी आवश्यकता है ।
परंतु यहाँ मेरी उलझन " सत्य "को लेकर कुछ और ही है। बचपन में ही मेरे शिक्षक माता-पिता ने विशेषकर मुझे सच बोलने का पाठ पढ़ाया था। एक रोचक प्रसंग है । एक बार मुझे डिब्बा दे अमुक किराना दुकान से घी लाने को कहा गया , पर आलस्यवश ऐसा न कर मैं समीप की ही दुकान से घी ले आया। पिता जी को उसके स्वाद में अंतर लगा और दुकानदार से पूछा ,तो मेरा असत्य सामने आ गया।
मेरे लिये दण्ड यह तय हुआ कि मैं रामायण की पुस्तक में एक पर्ची पर यह लिख कर रखूँ कि भविष्य में पुनः कभी झूठ नहीं बोलूँगा। मेरी मम्मी रामचरितमानस का प्रतिदिन पाठ करती थी । मैं नियमित उनके समक्ष बैठ इसे सुना करता था । अतः इस धार्मिक पुस्तक में मेरी विशेष आस्था थी। सो, वर्षों असत्य नहीं बोला, सम्भवतः पुनः कोलकाता जाने तक।
अपने ननिहाल कोलकाता से नानी माँ की मृत्यु के पश्चात जब वापस लौटा, तो बनारस में घर का माहौल मेरे बहुत अनुकूल नहीं रहा। इसी बीच एक घटना हुई। घर में ताखे पर रखी स्याही की बोतल किसी तरह गिर कर टूट गयी। पिता जी को संदेह हुआ कि मेरी असावधानी से ऐसा हुआ है। उन्होंने बहुत संघर्ष कर परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत की थी। सो, पूछताछ हुई और मैंने दृढ़ता से कह दिया कि मुझसे यह कार्य नहीं हुआ है। परंतु पिता जी को लगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ। वे छड़ी लेकर मेरे सामने खड़े थें । उनका सिर्फ इतना ही कहना था कि अपराध स्वीकार कर लो। उधर, मैं था कि सत्य बोलने पर अडिग रहा। परिणाम यह रहा कि कितनी मार पड़ी , उसकी गिनती नहीं है। परंतु मेरे इस सत्यवचन ने अभिभावकों के प्रति मेरे मन में मलिनता ला दी।
हाई स्कूल की परीक्षा समाप्त होते ही मैं घर से पलायन कर गया। साथ ही चंद वर्षों में मेरा पूरा परिवार बिखर गया। एक दशक बाद वह विद्यालय समाप्त हो गया , जो मेरे अभिभावकों के परिश्रम की कमाई थी। इसकों विस्तार देना उनका स्वप्न और हमारा भविष्य था। मेधावी छात्र होकर भी मैं उच्चशिक्षा नहीं ग्रहण नहीं कर सका और उससे भी कठोर दण्ड मुझे यह मिला कि दो दशक से गंभीर रोगों से पीड़ित हूँ । अपनत्व की चाह में हर किसी के द्वारा तिरस्कृत हूँ । पवित्र हृदय का होकर भी स्नेह के दो बोल के लिये दुत्कारा गया। तब हृदय ग्लानि से भर उठा । अब मैं अपने एकांत कक्ष में चिन्तन में खोया रहता हूँ।
आज का मेरा विषय यह है कि यदि मैंने यह कह दिया होता - " हाँ, पिताजी यह स्याही की बोतल मुझसे ही गिरी है।"
तो मेरे इस असत्य वचन से मेरा परिवार नहीं बिखरता। घर का सबसे जिम्मेदार और बुद्धिमान बालक तो मैं ही तो था । लगभग 15 वर्ष का था भी और मेरी शिक्षा के लिये भी पिता जी ने अच्छी व्यवस्था की थी। अपने कालेज में विज्ञान की कक्षा में सर्वाधिक अंक जब मुझे प्राप्त हुआ । तब सबसे अधिक हर्ष पिता जी को ही हुआ था। फिर भी मैं खुश नहीं था। उस पिटाई के बाद से घर मुझे कारागार सा लग रहा था।
तो क्या मैं बड़ों का मान रखने के लिये असत्य बोल देता .. ? यही मेरा यक्ष प्रश्न है। जिसे मैं जीवन की पाठशाला में अभी तक नहीं सुलझा पाया हूँ। जबकि मैं गणित का विद्यार्थी रहा। हर कठिन सवाल का हल अपने परिश्रम से कर ही लेता था। गणित के दोनों पेपर में मुझे 49- 49 अंक मिले। परंतु एक- एक अंक कम क्यों हुआ , इसे लेकर मुझे तब बहुत कष्ट हुआ था। लेकिन , आज जीवन की पाठशाला में कर्मपथ पर हो कर भी मैं अकेला हूँ। मेरी भावनाओं का उपहास हुआ।
अपने हृदय को अब भी नहीं समझा पाता हूँ कि मैंने तब असत्य का आश्रय अपने प्रियजनों की संतुष्टि के लिये क्यों नहीं लिया।
योगेश्वर कृष्ण ने भी तो जनकल्याण के लिये महाभारत युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर को असत्य बोलने के लिये विवश किया था।
हमारा सनातन धर्म भी यही कहता है -
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् ।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥
(सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है ॥)
वैसे सत्य को लेकर कुछ विचारकों का मत रख रहा हूँ-
जेम्स लावेल ने ' अमृतकण ' में लिखा है -
" सत्य सूली पर लटका हुआ भी सिंहासन पर होता है और असत्य सिंहासन पर बैठ कर भी सूली पर लटका रहता है।"
कृष्णचंद्र ने ' मेरी यादों के विचार' में लिखा है-
" जो सत्य की राह पर चलते हैं। उनका कोई घर नहीं होता, कोई शरण स्थल नहीं होता, कोई सायादार वृक्ष उनकी राह में नहीं उगता। वे अपने हृदय में दृढ़ संकल्प लेकर इस राह से गुजरते हैं और अपने पीछे यादों के चिनार छोड़ जाते हैं, जो
के शोले की तरह धरती से निकलते हैं और आकाश की तरह सिर ऊँचा कर के उनकी शहादत की गवाही देते हैं। "
लेकिन , हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ' बाण भट्ट की आत्मकथा ' में लिखते है-
" औषधि के समान अनुचित स्थान पर प्रयुक्त होने पर सत्य भी विष हो जाता है। हमारी समाज व्यवस्था ही ऐसी है कि उसमें सत्य अधिकतर स्थानों में विष का कार्य करता है। "
--व्याकुल पथिक