
आईना वो ही रहता है , चेहरे बदल जाते हैं
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जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है..
तो मित्रों , सियासी आईने की तस्वीर एक बार फिर बदल गयी । जिन्हें गुमान था , उनका विजय रथ रसातल में चला गया। सिंहासन पर बैठे वज़ीर बदल गये हैं। भारी जश्न है चारोंओर, पार्टी में इस राजनैतिक वनवास के समापन का श्रेय युवराज को दिया जा रहा है। अब तो अगले वर्ष दीपावली मननी तय है , ऐसा कहा जा रहा है। हम पत्रकारों को भी पटाखा फोड़ने वालों ने जल- जलपान करवाया था , उनका फोटो आदि प्रकाशित कर हमने भी अपना कर्म पूरा किया।
परंतु जब ब्लॉग पर होता हूँ , तो एक पत्रकार की जगह बिल्कुल आम आदमी सा सोचता हूँ कुछ अपनी और कुछ जग के बारे में। उन उम्मीदों के बारे में, जो इलेक्शन बाद जनता करती है और फिर पूरे पाँच वर्षों तक वह मिमियाती है, चिल्लाती है, झल्लाती है। वह ऐसा सियासी आईना बन कर रह जाती है , जिसमें उसकी तस्वीर न कभी बदली है और ना ही बदलेगी.. ! वो गीत है न -
आईना वो ही रहता है , चेहरे बदल जाते हैं
आंखों में रुकते नहीं जो, आंसू निकल जाते हैं
होता है जब प्यार तो , लगता है पानी शराब
दो घूँट पीते ही लेकिन होंठ जल जाते हैं..
जनता जिसे मसीहा समझती है, उसकी ताजपोशी करती है, पर सिंहासन मिलते ही उनकी सोच बदल जाती है । याद करें कि किसानों, नौजवानों, कामगारों, व्यापारियों से लेकर आम आदमी की किस्मत बदलने वाले वे जुमले , जिससे पूरे देश की राजनीति बदल गयी थी। उसी दौर में हमारे मीरजापुर की बुझी काटन मिल की चिमनी में धुआँ करने की बात भी कही गयी थी । लेकिन, राजनैतिक परिदृश्य बदलने से , क्या बदल गया आम आदमी का जीवन स्तर.. ?
इसी बुझी चिमनी से चलकर पूछ ले आप या फिर यह गीत गुनगुनाते इस सच्चाई को स्वीकार करें -
चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्ताँ हमारा
रहने को घर नही है, सारा जहाँ हमारा
खोली भी छिन गई है, बेन्चें भी छिन गई हैं
सड़कों पे घूमता है अब कारवाँ हमारा
जेबें हैं अपनी खाली, क्यों देता वरना गाली
वो सन्तरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बाँट ली हैं
फ़ुटपाथ बम्बई के हैं आशियाँ हमारा ..
सुबह के अंधकार में निकल कर देखें तो सही सड़कों के फुटपाथ पर भी हमारे जैसे ही लोग हैं, इनके जीवन में कब प्रकाश होगा..? ढ़ाई दशक से इसी शहर में आशियाना तो मेरा भी कोई नहीं है, परिश्रम कम नहीं किया है मैंने भी, पर पथिक और मुसाफिरखाने का रिश्ता पुराना है।
" अपना घर " इस ख्वाहिश को बचनपन से ही हवा दी थी मैंने, कोलकाता में जब था, घोष दादू के गोदाम से बड़ा सा कार्टून ले आता था। दो मंजिला घर , उसका बारजा और चबूतरा तक बनाता था। बेडरूम, ड्रांइग रूम, किचन सभी बनाता था, खिलौने वाला पलंग, बर्तन, कुर्सी- मेज से उसे सजाता था। रंगीन बल्ब लगाता था। सुंदर रंगीन पेपर से बना यह मेरा घर , बचपन में मेरी उस आकांक्षा का प्रतिबिंब था, जो हर इंसान को होती है , बड़े होकर । परंतु किस्मत को तो मेरा उपहास उड़ाना था, माँ की मृत्यु के बाद मेरे बचपन का घरौंदा स्मृतियों की गठरी में समा गया। एक बंजारे सा भटक रहा हूँ और भला ऐसे अपरिचित व्यक्ति को स्नेह कौन करता है । हाँ, भावुकता में हर बार अपने हृदय को लहूलुहान कर लेता हूँ। स्नेह के बदले तिरस्कार अथवा उपदेश ही तो अब तक मिले हैं। जिन्हें अपना समझा, उन्होंने पलट कर कह दिया आप हमारे है कौन ? कहाँ से लाता फिर मैं अपना घर ।
लेकिन , याद रखने वाली बात यह भी है कि राजनैतिक जगत में जो भी " विधाता " कहलाते हैं , जिनके पास सत्ता की शक्ति होती है, वे भी आज नहीं तो कल पैदल हो जाते हैं । हाँ, यदि कर्मपथ पर रहें ,तो विपरीत परिस्थितियों में भी उनका सम्मान कायम रहेगा, अन्यथा-
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा
तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है
चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है
ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा
खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा ...
इस मानव जीवन का यही एक मात्र सत्य है , इसीलिए मेरे उन पंसदीदा गीतों में से यह एक है, जो मेरा मार्गदर्शन करता है, इस तन्हाई में। इस चमक- धमक वाली दुनिया में तमाम प्रलोभनों से मुझे मुक्त रहने के लिये निरंतर निर्देशित और प्रोत्साहित करता है। अन्यथा इस अर्थयुग की मृगमरीचिका निश्चित ही दौड़ाते रहती, उन्हीं रेगिस्तान में जहाँ, से फिर वापसी नहीं है। मैं थोड़ा संभल गया , इसीलिए
व्याकुल पथिक बना उस मंजिल की तलाश में हूँ , जहाँ स्वेदनाएँ हैं , स्नेह है और यह संदेश है कि किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..
कुछ न मिला इस जीवन से तो भी कोई गम नहीं, एक कोशिश तो की न , यह संतोष क्या कम है-
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही ..
पत्रकार हूँ तो देश- दुनिया की खबर भी थोड़ी बहुत रखनी पड़ती है , अन्यथा टेलीविजन के स्क्रीन पर यदि चुनाव परिणाम न आना होता,तो मैं नजर गड़ाने वाला भला कहाँ था। जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था कि पाँच राज्यों में जो चुनाव हुये हैं, वह भगवा बिग्रेड पर भारी पड़ेगा ,परिणाम वैसा ही निकला। नेपथ्य में रही कांग्रेस फ्रंट पर सलामी बल्लेबाज की तरह इस तरह से आ डटी है कि अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव तक वह इसी तरह से इस सियासी पिच पर बल्ला भाजती रहेगी ।
उधर, सियासत के शहनशाह की वह चमक, धमक और हनक वक्त के ताकत के समक्ष अतंतः मंद पड़ ही गयी। हम चाहे कितनी भी ऊँचाई पर पहुँच जाएँ , परंतु हमें आना पुनः इसी जमीन पर है । आखिर इस बात को हम समझ क्यों नहीं पाते। जो अवसर हमें मिला है,उसका सदुपयोग करें , कर्म करते हुये नियति के हाथों पराजित हो भी गये , तो भी एक आत्मसंतुष्टि रहती है । देखें न पांच राज्यों में जो चुनाव परिणाम आया है ,उसमें मध्यप्रदेश ही एक ऐसा प्रांत रहा , जहाँ सत्ताधारी दल अंत तक संघर्ष करते रहा , भले ही सरकार उसकी न बनी , फिर भी कांग्रेसियों को पटाखा फोड़ने से अंत तक रोके रखा न वहाँ के निवर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने। इस रोमांचकारी संघर्ष देख कर मुझे एक संतुष्टि की अनुभूति हुई कि कर्मपथ पर चलने वाला व्यक्ति को जय- पराजय दोनों में ही लोग याद रखते हैं। अतः पराजित होकर भी शिवराज सिंह के संदर्भ में ससम्मान यह कहते मिल रहे हैं लोग कि डेढ़ दशक का उनका कार्यालय उम्दा रहा, वे तो फलां के कारण हारे हैं..।
विजय तो खुशी देती है ही , परंतु पराजय भी जिसका मान बढ़ाये , वह भी महान है , कर्मपथ पर है । जीवन के इस मंत्र को मैं राजनैतिक चश्मे से ही सही ,सिखना निश्चित चाहूँगा, मेरे किसी सेक्युलर साथी को इस पर आपत्ति हो सकती है , पर यह मेरा नजरिया है । मैं किसी अदृश्य शक्ति के समक्ष कभी गिड़गिड़ाता नहीं , फिर जाति- मजहब और सेक्युलर - कम्युनल को लेकर कैसा भय , चाहे जो आरोप लगे मुझपर ।
एक बात कहूँ, ऐसा हम कब तक सोचते रहेंगे कि लोकतंत्र का यह सिंहासन जनता का है या जनता ही तख्तापलट करती है और जनता ही शासक है। जैसा कि कवि का कथन है-
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सच तो यह है कि यह तख्तोताज उनका है जो जनता को फुसला सके, बहका सके , कूटनीति का यह इंद्रजाल कभी समाप्त न होगा। सिंहासन जिसके हाथ लगेगा, वह जनता नहीं शासक होगा ।