वसुधैव कुटुम्बकम का दर्पण यूँ क्यों चटक गया..
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बड़ी बात कहीं उन्होंने ,यदि हम इतना भी त्याग नहीं कर सकते तो आखिर फिर क्यों दुहाई देते हैं वसुधैव कुटुम्बकं की ? शास्त्र कहते हैं कि आदर्श बोलते तो है पर उसका पालन नहीं करते तो पुण्य क्षीण होता है ।
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गुज़रो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे...
काश ! कुछ ऐसा ही होता कि हमारी दुआ असर दिखलाती और इस खूबसूरत दुनिया की हर बगिया गुलजार रहता। हर सम्वेदनशील, भावुक और दयालु इंसान ऊपर वाले से कुछ ऐसी ही प्रार्थना तो करता है न। हमारे शास्त्रों में ' ' 'वसुधैव कुटुम्बकं' एक आदर्श वाक्य है। हम सम्पूर्ण विश्व का कल्याण चाहते है। परंतु अमृतसर दशहरा हादसा एक बार फिर से हमारी मानवीय सम्वेदनाओं का उपहास उड़ाते दिख रहा है। रावण के पुतला दहन को देख रहें रलवे ट्रैक पर खड़े कितने ही बेगुनाह लोग ट्रेन से कट मरे और उससे कहीं अधिक घायल भी हैं । उजड़ गए परिवारों की चीख-चीत्कार, आह-विलाप से फिर भी जिसका हृदय द्रवित नहींं हुआ, वह मानव नहीं बल्कि दानव ही कहा जाएगा । कोई मां पुत्र खोई होगी है , कोई बहन अपना भाई । कोई पिता खोया तो कोई पति खोकर हुई होगी विधवा । पर्व की खुशी पल भर में मौत के तांडव नृत्य में बदल गयी।
घटना के समय मैं अपने शरणदाता व अति उदार स्वभाव के मित्र चंद्रांशु गोयल के होटल के रिसेप्शन कक्ष में था। होटल के कर्मचारी पर्व के कारण छुट्टी पर थें, अतः बंद कमरे से बाहर निकल चंद्रांशु भैया के पास नीचे आ गया था..। जहाँ लगी बड़ी सी एलईडी टीवी के स्क्रीन पर यह समाचार ब्रेकिंग न्यूज बन कर फ्लैश होने लगा , कुछ ही मिनटों में। तब तक सोशल मीडिया पर भी यह हृदय विदारक दृश्य सहित समाचार आ रहा था..।
मन व्यथित हो गया इस पथिक का और भी तब यह देख कर कि यहाँ दशहरे के जश्न में कोई कमी नहीं आई। मानों मरने वाले लोग हमारे जैसे इंसान नहीं थें...। जो रक्त बह रहे थें रेल पटरियों पर उसका रंग सुर्ख लाल नहीं था..। समझ नहीं पा रहा हूँ कि कैसे मानव हैं हम, या हमारा रक्त ही शव पर लिपटे कफन की तरह श्वेत हो चुका है..।
तभी सलिल भैया का यह संदेश सोशल मीडिया पर आया,
" अमृतसर दशहरा हादसा राष्ट्रीय शोक की घड़ी । वसुधैव कुटुम्बकं मानने वाले तत्काल हर तरह के दशहरा-उत्सव करें स्थगित, मनाएं शोक । "
मैंने सोचा कि चलो इस मार्मिक अपील के प्रभाव से निश्चित ही मेले और दुर्गा पूजा पंडाल के आयोजकों की तंद्रा भंग होगी, कम से कम वे ध्वनि विस्तार यंत्रों से निकलने वाले शोर को तो कम कर ही देंगे। परंतु अफसोस , ऐसा कुछ भी न हुआ ,जबकि हम सम्पूर्ण विश्व को अपना मानते हैं। हमें संस्कार का सबक देने के लिये सुबह होते ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ विशेष चैनल धार्मिक, नैतिक और सामाजिक आइटम परोसने लगते हैं। हम भी तो बातें बड़ी ऊंची- ऊंची करते हैं न..? और तो और हादसे पर राजनीति भी शुरु हो गयी। घटना की जिम्मेदारी को लेकर तेरा- मेरा की वहीं गंदी सियासत फिर से...।
एक प्रश्न सलिल भैया का का विचारणीय है कि असली रावण कौन है..? अमृतसर दशहरा हादसे में मरते मरते 'रावण' (पात्र दलबीर) इतना संवेदनशील साबित हुआ कि तीन की जान बचा ले गया लेकिन रामभक्ति में डूबे दशहरा उत्सव के आयोजकों में कहीं से खबर नहीं आ रही थी कि कोई उत्सव मातम में रोक दिया गया हो। कितनी दुखद स्थिति है। अनुसरण तो हम राम का करते हैं, रावण का पुतला जलाते हैं और जब अपने ही पड़ोस के राज्य में ही इतनी बड़ी दर्दनाक घटना हो जा रही हैं , फिर भी हम मुस्कुरा रहे हैं, जश्न मना रहे हैं। यह संवेदनहीनता असुर- राक्षसों वाली ही तो प्रवृत्ति है न..। विजयादशमी के दिन 19 अक्टूबर को देर शाम यह पीड़ादायक समाचार चहुंओर फैल गया था।
सब अवाक और आहत थें, लेकिन यह खबर कहीं से नहीं आयी कि धमाचौकड़ी और झूमझाम के कार्यक्रम स्थगित करना तो दूर थोड़ी देर के लिए आयोजकों द्वारा शोक-श्रद्धांजलि व्यक्त की गई हो । दलील दी जा सकती है कि जब उत्सव शुरू हो गया तो कैसे रोके ? रोक न पाने की स्थिति में शोक तो व्यक्त किया जा सकता था । काफी आहत दिखें सलिल भैया , जिनका कहना रहा कि मान ले कि किसी आयोजन कमेटी के महत्वपूर्ण पदाधिकारी के घर कार्यक्रम के दिन कोई गम्भीर बीमार हो जाए, कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या वह आयोजन से तौबा नहीं करेगा ? इसी परिप्रेक्ष्य में अमृतसर की घटना में रोते-बिलखते परिजनों को यह मान लेते कि ऐसे ही अपना परिवार बिलखता तो क्या आयोजन में हम धमाचौकड़ी करते ? मुख्य अतिथि का स्वागत करते ? माला पहनाते ? बताने की जरूरत नहीं उत्तर खुद ही मन सही सही दे देगा ..। बड़ी बात कहीं उन्होंने ,यदि हम इतना भी त्याग नहीं कर सकते तो आखिर फिर क्यों दुहाई देते हैं वसुधैव कुटुम्बकं की ? शास्त्र कहते हैं कि आदर्श बोलते तो है पर उसका पालन नहीं करते तो पुण्य क्षीण होता है । स्कन्दपुराण में स्पष्ट है कि पुण्य कब कब और कैसे-कैसे क्षीण और नष्ट होता है ।
जहाँ तक मेरा सवाल है , तो धर्मग्रंथों पर तो बहुत नहीं चिंतन- मनन नहीं करता , परंतु अपनी अंतरात्मा की आवाज निश्चित ही सुनने का प्रयास करता हूँ। अन्यथा स्वयं को रावण कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं होगा।
यदि राम कहलाना है तो हमें अपनी मानवीय संवेदनाओं को विस्तार देना होगा। दो नारियों अहिल्या और सबरी , जिन्हें उस समय के भ्रदजनों ने ठुकरा दिया था। राम निःसंकोच उनकी कुटिया में गये। केवट , बानर और राक्षक तक के प्रति उनमें सम्वेदना थी और हम तनिक देर शोक में मौन भी न रह सकें...?
सोचे हम राह क्यों भटकते जा रहे हैं और अपने बच्चों की सामाजिक ज्ञान की झोली में नैतिक शिक्षा की कौन सी पुस्तक डाल रहे हैं। यदि हम अपनी सामाजिक सम्वेदनाओं को इसी तरह से सिकोड़ते जाएँगे, तो एक दिन हमारे स्वयं के परिवार में भी यह दुखद दृश्य देखने को मिलता है। माता- पिता और भाई- बहन जैसे नजदीकी रिश्ते भी नहीं बचते। एक भाई का परिवार भूखा है और दूसरा रसमलाई खा रहा है, होता है कि नहीं बोले न ...?
अपने बचपन की बात बताऊँ, कोलकाता में मेरे एक काफी अमीर रिश्तेदार थें। बड़ी - बड़ी मिठाई की दुकानें रहीं और बंगला- मोटर भी। परंतु उनकी अपनी बुआ उनकी दुकान पर मिठाई बनने के लिये आये परवल को छिलती और उसका बीज निकाल कर जीवकोपार्जन करती थीं। बोरी भर भर कर परवल दिन भर छिला करती थीं। बड़ा ही कठिन कार्य था, उस अवस्था में ...। हाँ , पर थीं स्वाभिमानी । मैंने भी तो अपने सम्पन्न रिश्तेदारों के समक्ष हाथ नहीं फैलाया था।
फिर भी यह हमारा नैतिक दायित्व है कि आपदा की घड़ी में
हम यदि तन और धन से सहयोग न कर सके, तो मन को तो उन्हें समर्पित करें, जो कष्ट में हैं। पर्व- उत्साव तो फिर आएँगे , परंतु औरों की वेदनाओं में अपनी सम्वेदनाओं प्रकट भावात्मक रुप से ' वसुधैव कुटुम्बकम ' को आत्मसात करने का अवसर सदैव तो नहीं आता।
मृत्यु के पश्चात जिन भी महापुरुषों को अमरत्व को प्राप्ति हुई है , सभी ने अपने चिन्तन और कर्म से वसुधैव कुटुम्बकम का ही तो अनुसरण किया है..। अन्यथा फिर निदा फ़ाज़ली के शब्दों में..
कहां चिराग जलाएं कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बां मिली है मगर हमज़बां नहीं मिलता।