वो जुदा हो गए देखते देखते..
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दबाव भरी पत्रकारिता हम जैसे फुल टाइम वर्कर के लिये जानलेवा साबित हो रही है। पहले प्रेस छायाकार इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव की दुर्घटना में मौत और एक और छायाकार कृष्णा का घायल होना,वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर दिनेश उपाध्याय का मौत के मुहँ से निकल कर किसी तरह से वापस आना और मैं स्वयं अस्वस्थ तन-मन लिये इसी पेशे का शिकार हूँ, जिसमें मुनाफा बिल्कुल नहीं है मेरे दोस्त... !
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वो भी एक पल का किस्सा था
मैं भी एक पल का किस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
वो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
मैं पल दो पल का शायर हूँ
पल दो पल मेरी कहानी है ...
कब किसकी सांसें किस मोड़ पर थम जाए, जीवन एक कहानी बन कर रह जाए, क्या पता..। अनंत में समाने की चाहत मन में लिये मैंने बड़ी बेचैनी से आज की शाम गुजारी है। गोपियों संग ब्रह्मांड नायक श्रीकृष्ण के महारास के संदर्भ में चिन्तन कर रहा था। प्रेम की ऐसी अद्भुत परिभाषा रची कि द्वारिकाधीश हो कर भी उनकी पूजा राधा संग ही होती है। योगेश्वर होकर भी उनकी पहचना वृंदावन के नटखट कृष्ण कन्हैया से ही है। जिन्होंने आज शरद पूर्णिमा के दिन ही गोपियों संग महारास रचा था। आध्यात्मिक जगत करते रहे इसकी व्याख्या, परंतु ज्ञान की आँखों से परे है यह प्रेम की परिभाषा..?
वैसे, कितना सुंदर सलोना होता है , यह शरद पूर्णिमा का चांद भी, फिर भी मुझे बंद कमरे की खिड़की खोलने की तनिक भी इच्छा नहीं हो रही है। जबकि पड़ोस के मैरिज हाल में नाच गाने का काफी शोर है। हो सकता है कोई पार्टी हो वहाँ .। परंतु अपना तो बुखार से शरीर टूट रहा है। दांत में दर्द था, अतः रूट कैनाल करवाया है। जिससे चेहरा भी दायी ओर गुब्बारे की तरह हो गया है। युवा दंत चिकित्सक डा० राहुल चौरसिया ने अल्प समय में ही अपनी पहचान बना ली है। अब संबंधों के लिहाज से मैं ठहरा उनका चाचा , तो मेरा देखभाल कुछ ज्यादा ही हुआ। ढ़ाई दशक की पत्रकारिता में बस इतना ही कमाई की है कि जेब में पैसे रहे न रहे , कोई काम रुकता नहीं है, न ही मुझसे कोई पैसा ही लेना चाहता है। इस शहर में हर मोड़ पर कोई अपना परिचित मिल ही जाता है , सिर्फ अपने बंद कमरे को छोड़ कर। यहां पर ऐसा कोई मनमीत नहीं, जो मेरी मनोदशा को समझे, मैं नाराज हो जाऊँ, तो वह मुझे मनाएं और इस तन्हाई को साझा करे। ऐसे व्यर्थ के जीवन को मैं झेले जा रहा हूँ , परंतु कब तक..?
मानसिक और शारीरिक पीड़ा का सीधा असर मस्तिष्क पर पड़ रहा है, फिर भी यह मन निरंतर चलायमान है। उसे कोलकाता में गुजरा अपना वह बचपन, वह कमरा, वह आंगन, वह सीढ़ी ,.वह चांद आज भी तो याद है, जब माँ के कहने पर हाथों में सुई और धागा लेकर ऊपर वाली सीढ़ी पर चढ़ जाया करता था। जहाँ चंद्र प्रकाश में सुई के छिद्र में धागा डालता और फिर उसे लाकर माँ को दिखला देता, तो वे कितनी खुश होती थीं। कहती थीं कि मुनिया अब तेरे नेत्र की ज्योति कमजोर नहीं होगी । पर जब माँ ही चली गयी , तो आशीर्वाद का वह सुरक्षा कवच भी टूट गया।
मीरजापुर में दो जून की रोटी के लिये कुछ इस तरह का शारीरिक एवं मानसिक श्रम करना पड़ा कि चार आँखों वाला हो गया हूँ। फिर जब मलेरिया ने घेर लिया तो चश्मे का नंबर बढ़ता ही जा रहा है..।
और हाँ, आज तो चावल की खीर खुले आसमां के नीचे रखी जाती है, चंद्र किरणें उसे अमृत तुल्य जो बना देती हैं। इस खीर के पीछे औषधीय कारण है कि नए धान की फसल पर जब चन्द्रमा की यह किरणें पड़ती हैं तब धान (चावल) अत्यंत पुष्टिकारक हो जाता है । आश्विन मास का नामकरण अश्विनीकुमारों के नाम से होने के कारण आयुर्वेदिक चिकित्सक तमाम बीमारियों की दवा इस रात रखे गए खीर के साथ रोगियों को देते है । पुष्टिकारक एवं आयुष्य देने वाली किरणों के कारण ही हमारे ऋषियों ने 12 महीनों में 'जीवेम शरद:शतम' का आशीष देकर इस माह को गौरवान्वित किया , परंतु अपने नसीब में तो वही दलिया ही रहा आज की शाम भी। चलों अच्छा ही हुआ कि तरह - तरह के व्यंजनों का मैंने स्वेच्छा से ही त्याग कर दिया। उक्ति है न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। ये चंद्र किरणें और अमृत तुल्य यह खीर नसीब वालों को मुबारक हो , मेरे लिये तो अपना दलिया ही छप्पन भोग है। जब इससे अधिक कुछ बनाने में असमर्थ हूँ तो अन्य भावनात्मक इच्छाओं की तरह व्यंजनों का भी परित्याग उचित ही मेरे लिये। वैसे, सच तो यह भी है कि दलिया और मूंग की खिचड़ी कितना सम्हालेगी, इस शरीर की उर्जा सम्बंधित आवश्यकताओं को , यह तो मैं भी जानता हूँ, परंतु नियति के समक्ष विवश हूँ, कल रात में ही दांतों में दर्द शुरू हो गया था, हालांकि डाक्टर साहब ने दवा दी थी और बताया भी था कि इंजेक्शन का प्रभाव कम होने पर कुछ दर्द होगा ही। फिर भी करवटें बदल रहा था कि रात गुजर जाय। हाँ , तभी किसी के स्नेह का आभास हुआ और कुछ देर के लिये आँखें लग गयीं । सुबह के चार बजते ही मेरे दोनों सेल फोन एक साथ उठो लाल अब आँखें खोलों ...का रट लगाने लगता है। चाहे बुखार हो या दर्द मैं अपनी ड्यूटी पूरा करने निकल पड़ता हूँ सुबह साढ़े चार बजे मुकेरी बाजार चौराहे की ओर ...।
अन्तर सिर्फ इतना है कि पहले पेट की अग्नि शांत करने के लिये काम करता था और अब स्वयं को व्यस्त रखने के लिये , ताकि एकाकीपन अवसाद बन मन मस्तिष्क पर न छा जाए...।
पत्रकारिता के बोझ ने जहाँ मेरे जीवन की हर खुशी छीन ली,जिसका एहसास अब इस मोड़ पर मुझे हो रहा है कि कोई एक इंसान ऐसा नहीं है , जो इस रंगीन दुनिया में , मेरा दर्द बांट सके। भला कौन इस पथिक की वेदनाओं में रूचि लेगा और कितने दिनों तक , सबका तो अपना घर परिवार है न ..। माँ के बाद एक भी इंसान मुझे ऐसा नहीं मिला, जो मुझे इस तन्हाई में अपना समझ कर पुकारे । जिन्होंने पुकार भी वह छलावा था...।
परंतु जिनके अपने हैं , सपने हैं , वे भी अपना विकेट गंवा चले जा रहे हैं यूँ ही अचानक। हिन्दुस्तान समाचार पत्र के मीरजापुर के ब्यूरोचीफ तृप्त चौबे की हृदयगति रुकने से हुई मृत्यु ने इस व्याकुल मन को और झकझोर दिया है। मामूली सा सीने का दर्द भयावह हो गया। पत्नी और पुत्री के समक्ष ही उन्होंने अस्पताल में कल अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं , सारी योजनाओं और सारे सम्बंधों से नाता तोड़ लिया। कच्ची गृहस्थी बिखर गयी। पल भर में यह क्या हो गया..?
इस दिल पे लगा के ठेस
जाने वो कौन सा देश
जहाँ तुम चले गए...
दबाव भरी पत्रकारिता हम जैसे फुल टाइम वर्कर के लिये जानलेवा साबित हो रही है। पहले प्रेस छायाकार इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव की दुर्घटना में मौत और एक और छायाकार कृष्णा का घायल होना,वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर दिनेश उपाध्याय का मौत के मुहँ से निकल कर किसी तरह से वापस आना और मैं स्वयं अस्वस्थ तन-मन लिये इसी पेशे का शिकार हूँ, जिसमें मुनाफा बिल्कुल नहीं है मेरे दोस्त... !
मैं भी अपने परिवार, अपने स्वास्थ्य और उन अपनों का साथ , सभी कुछ गंवाने के बावजूद उस अनंत में समाने को छटपटा रहा हूँ। अपना तो सबकुछ वहाँ है। यहाँ अब खुद पर भी क्या भरोसा, जो दूसरों पर विश्वास करूं ...
गैर की बात तस्लीम क्या कीजिये
अब तो ख़ुद पे भी हमको भरोसा नहीं
अपना साया समझते थे जिनको कभी
वो जुदा हो गए देखते देखते..
और हाल यह है इस रंगीन दुनिया में रिश्तों का ..
मैंने पत्थर से जिनको बनाया सनम
वो खुदा हो गए देखते देखते
सोचता हूँ कि वो कितने मासूम थे
क्या से क्या हो गए देखते देखते
शशि 24/10/2018