दिवंगत पत्रकार की श्रद्धांजलि सभा में फफक कर रो पड़ी केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
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पत्रकारिता जगत ही नहीं समाजसेवा के हर क्षेत्र में यदि हम त्यागपूर्ण तरीके से अपना कर्म करेंगे, तो समाज हमारा ध्यान
आज इस अर्थ प्रधान युग में भी रखता है , फिर भी अपने पेशे के लोग यदि सम्मान दें, पहचान दें ,तो उसका विशेष महत्व होता है। एक आत्मसंतुष्टि सी होती है कि जीवन सार्थक हुआ।
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते जाते रस्ते में, यादें छोड़ जाता है...
हमारे कार्य, हमारे सदगुण और हमारा संघर्ष यदि जनहित में है,तो बेजां नहीं जाता, हम रहे न रहें , फिर भी समाज हमें याद करेगा। मैं सदैव अपने स्नेह विहीन ,कष्ट भरे एकाकी जीवन को लेकर व्याकुल सा रहता था कि क्या पत्रकारिता जगत में आकर इस अस्वस्थ तन- मन के साथ यूँ ही इस दुनिया से कूच कर जाऊंगा, हमारी पहचान यूँ ही नष्ट हो जाएगी, अपना कोई वंश भी तो नहीं है कि वह मुझे याद करे..। परंतु ऐसा नहीं है , यदि हम कर्तव्य पथ पर हैं, तो समाज हमें याद रखता है। रविवार को जिला पंचायत परिषद का यह सभागार इसका गवाह रहा..।
इस दिन सुबह साढ़े दस बजे से ही जिला पंचायत के सभागार में शोक के बादल आ-जा रहे थे कि तभी केन्द्रीय राज्यमंत्री मंत्री श्रीमती अनुप्रिया पटेल 'हिंदुस्तान' के ब्यूरोचीफ स्व तृप्त चौबे के लिए शोकोद्गार व्यक्त करने के लिए माइक थामा तो वे खुद को सम्हाल न सकी और उनके नारी-हृदय से करुणा की धारा बह चली । वे खुद फफक कर रो पड़ी । उन्हें सम्हालने श्रीमती नन्दिनी मिश्र मंच पर आयीं लेकिन श्रीमती अनुप्रिया अंत तक शोक-धारा से विलग न हो सकी और उसी में बहती नजर आयीं ।
प्रशासन के लगभग हर उच्च अधिकारियों, यहां के पत्रकारों तथा समाज के हर वर्ग के लोगों के इस भाव की कि स्व० चौबे की बेटी को मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार के तहत राजकीय सेवा मिले, इसकी मांग कभी पत्रकारिता जगत के स्तम्भ रहे सलिल पांडेय ने रखी और ज्ञापन स्व0 चौबे की बड़ी बेटी निमिषा (B. Sc. द्वितीय वर्ष) और छोटी बेटी साक्षी (कक्षा 12) द्वारा पत्रकारों ने एकस्वर समर्थन के साथ दिलवाया, जिस पर पूरी सहानुभूति के साथ मुख्यमंत्री तक पहुंचाने का भरोसा देते श्रीमती अनुप्रिया पटेल ने यह कहा कि वे अपने स्तर से भी बेटियों के लिए बहुत कुछ करेंगी और उनकी स्नातक तक की शिक्षा की जिम्मेदारी भी स्वयं ली। विधायक राहुल प्रकाश कोल और नगरपालिका अध्यक्ष मनोज जायसवाल ने भी हर सम्भव सहयोग की बात कही।
इससे पूर्व ऐसी श्रद्धांजलि सभा किसी पत्रकार के लिये नहीं हुई थी। जो खाटी पत्रकार रहें अथवा हैं , यही उनका सर्वोच्च सम्मान है।
इसके पहले यहाँ पत्रकारों ने स्वर्गीय प्रेस छायाकार इंद्रप्रकाश श्रीवास्तव के परिजनों और गम्भीर रुप से अस्वस्थ दिनेश उपाध्याय के आर्थिक सहयोग के लिये भी गणमान्य जनों के सहयोग से काफी कुछ किया। यह परम्परा कायम रहना चाहिए। जाहिर है कि हममें से अधिकांश पत्रकार श्रमजीवी हैं। जब तक सामर्थ्य है और हम किसी अखबार या इलेक्ट्रॉनिक चैनल से जुड़े हैं, इस चकाचौंध भरी दुनिया में हमारी मान- प्रतिष्ठा है। हाँ, पैसा तो फिर भी एक खाटी पत्रकार के पास इतना नहीं रहता कि हम परिवार की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके, फिर भी पद व प्रभाव के कारण कोई कार्य रुकता भी नहीं, यह भी सत्य है। परंतु जैसे ही हमारी शारीरिक क्षमता घटती है, हम पूर्व पत्रकार हो जाते हैं, ऐसा कोई आर्थिक स्त्रोत हमारे पास नहीं रहता कि हम सम्मान से अपना अपना शेष जीवन व्यतित कर सकें। फिर तो हम टूट जाते हैं, गुमनाम हो जाते हैं और जिस दिन मिट जाते हैं, एक कालम की शोकसभा में इन्हीं अखबारों में ही खो जाते हैं। मुझे याद है कि अपने समय के श्रेष्ठ छायाकार अशोक भारती एक बड़े अखबार से जुड़े थें। प्रशासन, राजनीति, व्यापार से जुड़ा हर शख्स इस शहर का उन्हें पहचानता था। हैट और सस्पेंडर बेल्ट उनकी खास पहचान थी। अपने समय के इकलौते प्रेस छायाकार थें वे, परंतु हुआ क्या उनके साथ, शरीर के कमजोर पड़ते ही प्रेस की नौकरी चली गयी। गुमनाम से पड़े रहे दरबे में और वैसे ही गुजर गये। वरिष्ठ पत्रकार पंडित रामचंद्र तिवारी जो मेरे गुरु थें , को इनसाइक्लोपीडिया (विश्वकोश) कहा जाता था ,इस मीरजापुर के भद्रजनों की मंडली में। परंतु उनकी स्मृति में हम क्या कर पाये। पत्रकारिता दिवस पर ऐसा कोई बैनर तक नहीं टांगते, जिसपर उन वरिष्ठ पत्रकारों के चित्र हो, जो कभी आदर्श पत्रकारिता के मिसाल थें। हम उनकी पत्रकारिता पर कभी किसी ऐसे मंच से चर्चा तक नहीं करते हैं।आदर्श पत्रकारिता के लिये यहाँ जिनकी ऊँची पहचान थी, वे आज गुमनाम हैं।जिले की पत्रकारिता पर ऐसी कोई पुस्तक नही है, जिसके माध्यम से स्थानीय पत्रकारों का जीवन परिचय और पत्रकारिता जगत में उनके संघर्ष की जानकारी युवा जगत को मिली। कोई पत्रकार भवन नहीं है, जहाँ इन आदर्श पत्रकारों के चित्र हो और हम इनकी जयंती पर वहाँ जा श्रदांजलि अर्पित करें। बस वर्ष में एक दिन पत्रकारिता दिवस पर हम मंच सजा कर बड़ी- बड़ी बातें करते हैं और फिर सहभोज..?
हमें आपस का वैमनस्य दूर करना चाहिए। जो भी पत्रकार वास्तव में पत्रकारिता के लिये समर्पित है, उनकी सही पहचान कर क्यों न कम से कम तीज- त्योहार पर उन्हें एक छोटा सा तोहफा ही भेट करे। जिससे हर कष्ट सहन कर भी कर्मपथ पर चलने वाले ऐसे पत्रकारों का मनोबल बढ़े। उसे यह न लगे कि समर्पित भाव और ईमानदारी से की गयी उसकी पत्रकारिता इस रंगीन दुनिया की चकाचौंध में गुम हो गयी।
बंधुओं आज में उस पड़ाव पर हूँ, जहाँ अपना परिवार, अपना स्वास्थ्य खो चुका हूँ। फिर भी थोड़ी पहचान बनायी है, इसीलिये निवास के लिये चंद्रांशु भैया ने सहृदयता दिखला , मित्र समझ अपने होटल में शरण दे दिया। बीमार होता हूँ, तो अपने सांईं मेडिकल के चंदन भैया दवा- इलाज से पीछे नहीं हटते हैं और दांत में गड़बड़ी आई तो अग्रज राजेश चौरसिया के बड़े पुत्र डा० राहुल चौरसिया ने चाचा- भतीजे वाला संबंध का निर्वहन किया। यदि कभी मेरा सेल फोन खराब हो जाता है, तो जनप्रतिनिधि और समाजसेवी जन स्वतः ही उसकी व्यस्था कर देते हैं। वे जानते हैं कि इससे अधिक मेरी कोई आवश्यकता नहीं है। भोजन में दलिया , रोटी और थोड़ी सी सब्जी यदि बना सकूं , तो इतना बहुत है, क्षुधा शांति के लिये।
मित्रों, पत्रकारिता जगत ही नहीं समाजसेवा के हर क्षेत्र में यदि हम त्यागपूर्ण तरीके से अपना कर्म करेंगे, तो समाज हमारा ध्यान आज इस अर्थ प्रधान युग में भी रखता है , फिर भी अपने पेशे के लोग यदि सम्मान दें, पहचान दें ,तो उसका विशेष महत्व होता है। एक आत्मसंतुष्टि सी होती है कि जीवन सार्थक हुआ। जिसका प्रभाव नये पौध पर पड़ता है। वे भी प्रभावी तरीके से अपने कर्मपथ पर पांव जमा कर चलना सिखते हैं। यह कांटों भरा जीवन सफर है दोस्तों, किसी ऐसे पड़ाव पर पहुंच कर बहुत कुछ याद आता है...
क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है....