माँ की छाया ढ़ूंढने में सर्वस्व लुटाने वाले एक बंजारे का दर्द --
( जीवन की पाठशाला )
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हम न संत बन सके
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शब्द शूल से चुभे , हृदय चीर निकल गये
दर्द जो न सह सके , हम कवि बन गये ।
गुनाह क्या कर गये , जल के राख हो गये
तिरस्कार भरे वो स्वर ,अपराध- पाप बन गये।
माँ -सी छाया मिली , भूल वही कर गये
ग़ैर ना समझ सके , हम खिलौना बन गये।
रुला के मुस्कुराते रहे, सता के वे चले गये ।
तोहमत एक और लगा,महफ़िल वे सजाते रहे।
आँसू जब बिखर गये ,पीड़ा के संग नाच रहे।
मीरा बन पीके जहर , गीत खुशी के गा रहे।
संसार ने रुला दिया ,अपनों ने ठुकरा दिया।
दोस्ती की बात कह ,घात फिर ऐसा किया।
लुट गया सर्वस्व तब , लेखनी ठहर गयी
पीर से भरे नयन , अट्टहास वे करते रहे ।
स्नेह की राह में , हम लुटे ही रह गये
बुझी हुई प्यास को , जगा के वे चले गये।
न्याय की उम्मीद में , वक्त यूँ गुजर गये
लकीर के फकीर बने,कफ़न में सिमट गये।
दोस्त दोस्त ना रहे , हम न संत बन सके
वे वाह-वाह किया करें, दुआ मेरी क़बूल हो ।
- व्याकुल पथिक
2019