ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..
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ये जीवन है इस जीवन का
यही है, यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है, यही है छाँव धूप
ये ना सोचो इसमें अपनी हार है कि जीत है
उसे अपना लो जो भी जीवन की रीत है
ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..
तन्हाई भरी ये रातें कुछ ऐसे ही गीतों के सहारे यूँ ही कटती जा रही है मेरी । हाँ, सुबह जब करीब साढ़े चार बजे होटल का मुख्य द्वार खोलता हूँ, तो फिर से दुनिया के तमाम रंग-ढंग, शोर-शराबा और निर्धन वर्ग का जीवन -संघर्ष मुझे स्मृतियों के संसार से बाहर निकाल सच का आइना दिखलाता है। यूँ कहूँ कि जो कालिमा रात्रि में मेरे मन - मस्तिष्क पर अवसाद सी छायी रहती है, उसको स्वच्छ करने के लिये ही भोर के अधंकार में उजाले की तलाश किया फिरता हूँ प्रतिदिन। मित्र मंडली का कहना है कि इस ठंड में यह तुम्हें हो क्या गया है, क्यों अनावश्यक शरीर को कष्ट दे रहे हो। धन की जब तुम्हें आवश्यकता नहीं , कोई पारिवारिक जिम्मेदारी है नहीं , फिर फकीरी में मन लगाओं , छोड़ो यह अखबार और पत्रकारिता ..?
पर वे मेरी मनोस्थिति नहीं समझते कि जब स्मृतियों के साथ ही सहानुभूति और सम्मान की गठरी भारी होने लगे , तो उस दर्द एवं अहंकार से मुक्ति का एक आसान मार्ग है , विपरीत परिस्थितियों में औरों को संघर्ष करते देखना । देखें न इन खुले आसमान के नीचे रात गुजारने वालों को क्या ठंड नहीं लगती किस तरह से किसी दुकान के चौखट पर सोये पड़े हैं , एक पुराना कंबल या चादर लपेटे हुये । घुटने सीने से आ चिपके हैं, तनिक गर्माहट की आश में..। दुष्यन्त कुमार की कविता की ये पक्तियाँ भी क्या खूब है-
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ...
कबाड़ बिनने वाले बच्चों ने भी स्वेटर नहीं पहन रखी है। हाँ , मॉर्निंग वॉक करने वाले सम्पन्न लोग जरूर ठंडे में भी गर्मी का एहसास करवाने वाले ट्रैक सूट व जर्सी में दिखने लगे हैं। ऐसे ही हमारे कुछ मित्रों को जो सरकारी सेवा में हैं या फिर बाप- दादा के खजाने के स्वामी हो राजनीति कर रहे हैं, उन्हें अभी गरीब कौन , यह समझ में नहीं आ रहा है। बंधु किसी दुकान पर काम करने वाले पढ़े लिखे उस व्यक्ति या फिर किसी निजी विद्यालय में कार्यरत उच्च शिक्षा प्राप्त उस अध्यापक के दिल को जरा टटोले तो सही आप , 5-6 हजार रुपये के पगार में वह कैसे अपना घर परिवार चला रहा है।
खैर आज ब्लॉग का विषय मेरा यह है कि वे समाज सेवक जो अपने क्लबों में निर्धन -निर्बल वृद्ध स्त्री - पुरूषों को तमाशा बना कंबल वितरित करते हैं , वे यदि सचमुच समाजसेवी हैं , तो देर रात अपनी महंगी कार में कुछ गर्म वस्त्र ले कर अपने दरबे से बाहर निकलें और इस ठंड भरी रात में पात्र व्यक्ति की तलाश कर उसके वदन की कपकपी शांत करने का प्रयास करें, क्लबों में कंबल समारोह कब तक मनाते रहेंगे, कब बनेंगे हम इंसान..? हर धर्मशास्त्र चीख -चीख कर हमें सावधान करता है कि हम तो निमित्त मात्र हैं
, फिर क्यों दानदाता बन बैठते हैं, जबकि यही साश्वत सत्य है..
माटी चुन चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा
ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा
उड़ जा हंस अकेला..
बात यदि सामाजिक कार्यों और समाज की करूँ, तो मैं वर्ष 1994 में जब दो वक्त की रोटी की तलाश में वाराणसी से इस मीरजापुर जनपद में गांडीव समाचार पत्र लेकर आया था, तो यहाँ के लोगों के लिये अपने समाज के लिये अजनबी ही था। वर्ष 1995 में जाह्नवी होटल में समाज का जो सामुहिक विवाह परिचय सम्मेलन था , उसमें तब कोई मुझे पहचान तक नहीं रहा था और इस वर्ष 2018 में गत शनिवार अक्षय नवमी के दिन मोदनसेन जयंती पर्व एवं सामुहिक विवाह कार्यक्रम पर इस वैश्य समाज के विशाल मंच पर मुझे स्थान मिला , सम्मान मिला और पहचान भी ..।
हजारों लोगों के मध्य केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल जी ने अपने सम्बोधन के दौरान जब समाज को सांसद निधि से 32 लाख रुपये की धनराशि से निर्मित होने वाले उत्सव भवन देने की बात कही ,तो उन्होंने मेरा नाम लेकर कहा कि शशि भाई कहाँ हैं,अब इसे पूर्ण करने का बाकी का कार्य देखें।
मित्रों , समाज के सभी पदाधिकारी मुझसे स्नेह रखते हैं। परंतु मैंने स्वयं कभी भी मंच पर आगे आने का प्रयास नहीं किया। ऐसा बड़ा कोई कार्य जो अपने समाज के लिये मैंने नहीं किया है तन, मन और धन से , फिर भी आप सच्चे मन से यदि समाज के साथ हैं , उसके उत्थान के विषय में रुचि लेते हैं, तो याद रखें कि हजारों की भीड़ में छिपे होने के बावजूद भी आप चमकेंगे। फिर जुगाड़ तंत्र का मार्ग क्यों अपनाया जाए। वहाँ स्थायी पहचान नहीं है और यहाँ जब हम अपने दायित्व पर खरे उतरेंगे, तो समाज के हृदय में हमारे लिये सम्मान होता है। सो, अध्यक्ष विष्णुदास मोदनवाल , प्रांतीय उपाध्यक्ष मंगलदास मोदनवाल , उपाध्यक्ष एवं मीडिया प्रभारी घनश्यामदास मोदनवाल ,राष्ट्रीय मंत्री विंध्यवासिनी प्रसाद मोदनवाल, चौधरी कैलाश नाथ, राधेश्याम, ताड़केश्वर नाथ, त्रिजोगी प्रसाद, दिनेश कुमार एवं मनीष कुमार आदि पदाधिकारियों ने इस सफल कार्यक्रम का श्रेय मुझे देने का प्रयास किया, यह उनका बड़प्पन है। जो बात मुझे कहनी है फिर से वह यह है कि नियति चाहे कितना भी छल करे हमसे , परंतु हमारा कर्म हमें पहचान दिलाता है।
आज दिन में जैसे ही घनश्याम भैया की दुकान पर चाय पीने के लिये खड़ा हुआ, ताड़केश्वर भाई जी सामने से देशी घी की कचौड़ी ले आये और अपना सेलफोन थमा कहा कि भाभी जी बात करना चाहती हैं, कल भी उनके अनुरोध पर मुझे एक कचौड़ी खानी ही पड़ी थी। यदि अन्नपूर्णा साक्षात सामने खड़ी हों, तो उनके दिये प्रसाद का यह कह तिरस्कार करना कि नहीं मैं तो रोटी ही खाता हूँ, मेरी अन्तरात्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया। जिस माँ की मधुर स्मृति आज भी मुझे अपने बालपन की याद दिलाती रहती है, नारी जिसके स्नेह बिन मैं फकीरों सा ही हूँ एवं हर वैभव तुक्ष्य लगता है, उनके द्वारा जो भी खाद्य सामग्री मिले उसे अमृत तुल्य समझ कर ग्रहण करें हम , क्यों कि उसमें भी एक स्नेह छिपा होता है। जिसे मन की आँखों से ही देखा जा सकता है।
मुझे स्मरण हो आया कि सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध (ज्ञानप्राप्ति ) बनने से पूर्व अन्नपूर्णा बन कर आयी एक स्त्री से खीर का पात्र स्वीकार किया था ।
आज बस इतना ही , फिर मिलते हैं।
शशि/
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